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(२६२) तेभ्योऽप्यनन्त गुणिताः केवल ज्ञान पर्यवाः । सर्वद्धाभावि निखिल द्रव्य पर्याय भासनात् ॥१०४८॥
इति ज्ञानम् ॥२६॥ इससे भी अनन्त गुणा केवल ज्ञान के पर्याय हैं क्योंकि सर्वकाल में होने वाले सर्व द्रव्य पर्याय प्रकाशकारी हैं। (१०४८)
इस तरह से छब्बीस द्वार ज्ञान का स्वरूप सम्पूर्ण हुआ। ... अथ दर्शनम् द्विरूपं हि भवेद्वस्तु सामान्यतो विशेषतः । तत्र सामान्य बोधो यस्त दर्शनमिहोदितम् ॥१०४६॥ ...
अब सत्ताईसवें द्वार दर्शन के विषय में कहते हैं दो प्रकार से, १- सामान्य रूप से और २- विशेष रूप से वस्तु का बोध होता है। इसमें जो सामान्य रूप से बोध होता है उसे यहां दर्शन कहा है। (१०४६),
यथा प्रथमतो दृष्टो घटोऽयमिति बुध्यते। .. .
तद्दर्शनं तद्विशेष बोधो ज्ञानं भवेच्च तः ॥१०५०।। · जो पूर्व में देखा था वह यह घट है - ऐसी जानकारी हो, उसका नाम दर्शन . है और इसका विशेष बोध हो वह ज्ञान है । (१०५०)
उपचार नये नेदं दर्शनं परिकीर्तितम् । विशुद्धनयतस्तच्चानाकार ज्ञान लक्षणम् ॥१०५१॥
यहां जो दर्शन कहा है वह उपचार नय से कहा है। विशुद्ध नय से तो दर्शन का लक्षण अनाकार का ज्ञान हैं। (१०५१)
इदं साकार बोधात्प्रागवश्यमभ्युपेयते । अन्यथेदं किंचिदिति स्यात्कुतोऽव्यक्त बोधनम् ॥१०५२॥ अनेन च विनापि स्यात् बोधो साकार एव चेत् । तदैकसमयेनैव स्याद् घटादि विशेषवित् ॥१०५३।।
यह दर्शन अवश्य साकार बोध के पूर्व ही होता है। नहीं तो 'यह कुछ है' ऐसा अव्यक्त बोध कहां से होता? और जब दर्शन बिना भी साकार बोध होता है तो वह एक ही समय में घट आदि का विशेष बोध भी हो जाता है। (१०५२ से १०५३)
तथोक्तं तत्त्वार्थ वृत्तौ-"औपचारिक नयश्च ज्ञान प्रकारमेव दर्शन-मिच्छति।