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देशोनपूर्व कोटयायुः कश्चिदंगी विभंगवान् । ज्येष्टायुरप्रतिष्टाने तिष्ठेत् विभंग संयुतः ॥ १००२॥ इति ज्ञान स्थितिः ॥
विभंग ज्ञान की स्थिति जघन्यतः एक समय की होती है । जो ज्ञान उत्पन्न हुआ हो वह एक समय ही रहता है- वह ज्ञान की स्थिति कहलाती है। और इस विभंग ज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरोपम में कुछ पूर्व कोटि रहती है। पूर्व कोटि से सहज कुछ कम आयुष्य वाला कोई विभंग ज्ञानी जीव उत्कृष्टतः इतना समय विभंग ज्ञान सहित अप्रतिष्ठान नाम के नारकी जन्म में रहता है। ऐसा भाव है । (१००० से १००२)
इस तरह ज्ञान की स्थिति का स्वरूप समझना । अथ अन्तरम् ।
मत्यादि ज्ञानतो भ्रष्टः पुनः कालेन यावता । ज्ञानमाप्नोति मत्यादि ज्ञानानामन्तरं हि तत् ॥१००३ ॥
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अब ज्ञान के अन्तर के विषय में कहते हैं मति ज्ञान आदि ज्ञान से भ्रष्ट हुआ प्राणी पुन: जितने काल में ज्ञान प्राप्त करता है उतना मति ज्ञान आदि ज्ञान का अन्तर जानना । (१००३)
अन्तर काल चक्राणि कालतः स्यान्मति श्रुते ।
देशोनं पुद्गलपरावर्त्तार्द्ध क्षेत्रतो ऽन्तरम् ॥१००४।।
मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान का अन्तर उत्कृष्ट रूप में काल से अनंत काल चक्रों का होता है और क्षेत्र से अर्धपुद्गल परावर्तन का होता है। (१००४)
एवमेवावधिमनः पर्याय ज्ञानयोः परम् । अन्तर्मुहूर्त्त मात्रं च सर्वेष्वेष्वेष्वन्तरं लघु ॥ १००५॥
तथा अवधि ज्ञान और मनः पर्यव ज्ञान का अन्तर उत्कृष्टत: इतना ही होता है। जबकि इन सब का अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त का होता है । (१००५)
केवलस्यान्तरं नास्ति साधनन्ता हि त स्थितिः । अनाद्यन्तानादि सान्तेऽज्ञानद्वयेऽपि नान्तरम् ॥१००६ ॥
केवल ज्ञान का अन्तर नहीं है क्योंकि इसकी स्थिति सादि अनन्त है तथा अनादि अनन्त और अनादि सान्त है इन दोनों के अज्ञान में भी अन्तर नहीं है । (१००६)