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आह चननु ..... जह ते परजाया न तस्स अह तस्स न परपजाया । आचार्यः प्राह- जं तंमि असंबद्धा तो परपज्जायवव देसो ॥१०२०॥ चायसपज्जाय विसेसणाइणा तस्स जमवजजन्ति । सधणमिवासं बद्धं हवन्ति तो पजवा तस्स ॥१०२१॥
अन्य स्थान पर भी इस बात की पुष्टि करते हैं - यहां ऐसी शंका करते हैं कि 'जब वह पर पर्याय है तब वह उसका नहीं है और यदि उसका है तो वह पर पर्याय नहीं है?' इसका उत्तर आचार्य भगवन्त देते हैं कि- यह पर पर्याय इसके साथ में सम्बद्ध नहीं है इसलिए है तथा स्व पयार्य ऐसे विशेषण के कारण अपने पदार्थ का त्याग होता है, परन्तु ऐसा विशेषण न होने पर उपयोग में आने से यह पर पर्याय भी इसका कहलाता है। असम्बद्ध होने पर भी अपने उपयोग में आते हुए धन के समान अपना कहलाता है। वैसे यहां भी समझना। (१०२०-१०२१)
. "चायति त्यागेन स्व पर्याय विशेषणादिना च पर पर्याय घटादि पर्यायायेन कारणेन तस्य ज्ञानस्य उपयुज्यन्ते उपयोगं यान्ति। यतः घटादि सकल वस्तु पर्याय परित्यागे एवं ज्ञानादिरर्थः सुज्ञातो भवतीति सर्वे पर्यायाः परित्यागमुखेन उपयुज्यन्ते। तथा पर पर्याय सद्भावे एव एते स्वपर्याय । इति विशेषयितुं शक्या इति ॥ स्व पर्याय विशेषणेन पर पर्याया उपयुज्यन्ते इति तात्पर्यम् ॥" .
- 'सम्बन्ध रूप का त्याग होने पर स्वपर्याय ऐसे विशेषण का त्याग होने से, यह इसका कारण है - इस कारण से पर पर्याय अर्थात घटा आदि के पर्यायों से ज्ञान उपयोग में आता है क्योंकि घट आदि सर्व वस्तुओं के पर्याय के परित्याग से ही ज्ञानादि का अर्थ सुज्ञात होता है। इस तरह सर्व पर्यायों के त्याग स्वरूप में उपयोग में आता है। तथा पर पर्याय रूप ऐसा कुछ हो - इसका सद्भाव हो तभी यह स्व पर्याय कहलाता है; यह कहना शक्य है। स्व पर्याय का विशेष करके पर पर्याय का उपयोग किया जाता है। ऐसा तात्पर्य है।
श्रुतेऽप्यनन्ताः पर्यायाः प्रोक्ताः स्व पर भेदतः । स्वीयास्तत्र च निर्दिष्टास्तेऽक्षरानक्षरादयः ॥१०२२॥ क्षयोपशम वैचित्र्याद्विषयानन्त्यतश्च ते । श्रुतानुसारि बोधानामानन्त्यात्स्युरनन्तका ॥१०२३॥ श्रुत ज्ञान के भी अनन्त पर्याय हैं और इससे स्व पर्याय और पर पर्याय - ये