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इसमें प्रथम द्रव्य परत्व से इस तरह मति ज्ञानी सामान्यतः सर्व पदार्थों को जानता है और विशेषतः इसके देश आदि भेद भी जानता है, परन्तु इन पदार्थों (द्रव्यों) के सर्व विशेषों की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय आदि को स्पष्ट रूप में समझता है, सर्वथा-परिपूर्ण देखकर समझ नहीं सकता जो कि योग्य देश में रहे शब्दादि को जानता है और देखता भी है अथवा तो वह मतिज्ञानी-श्रुतभावितबुद्धि की अपेक्षा से सर्व द्रव्यों को जानता है। (८७६ से ८७८)
लोकालोको क्षेत्रतश्च कालतस्त्रिविधं च तम् ।
सर्वद्वा वा भावतस्तु भावानौदयिकादिकान् ॥८७६॥ __ तथा क्षेत्र से अर्थात् इसके विस्तार की बात करते है तो इसका विषय लोक और अलोक तक है; काल से इसका विषय भूत, भविष्य व वर्तमान इस तरह सर्व काल तक का है और भाव की अपेक्षा से औदयिक आदि भावों को बताने तक का है। (८७६).
आह च भाष्यकार:आए सोत्ति पगारो ओध देसेण सव्वदव्वाइं ।
धम्मत्थि काइयाइं जाणइ न उ सव्वभावेण ॥८८०॥ .: इस विषय में भाष्यकार कहते हैं कि- यह देश अर्थात् प्रकार ओधा देश से अर्थात् ओघ से धर्मास्तिकाय आदि सर्व द्रव्य को जानता है परन्तु सर्वभाव से अर्थात् पर्याय.सहित नहीं जानता। (८८०)
. . खेत्तं लोगालोगं कालं सव्वद्धमहव तिविहं पि । - . पंचोदइ याईए भावे जनेयमेव इयं ॥१॥
मति ज्ञानी लोक अलोक सारा जानता है, सर्व अर्थात् तीनों काल को जानता है और उदयिक. आदि पांच भावों को जानता है ।
आए सोंत्ति व सत्तं सुओवलद्धे सुतस्य मरनाणं । पसरइ तज्झा वणया विणावि सुत्ताणुसारेणं ॥१॥
अथवा यह देश अर्थात् श्रुत लेना- इससे श्रुत द्वारा प्राप्त हुआ हो वह श्रुतानुसारी मति ज्ञान है और उसके बिना हुआ हो वह अश्रुतानुसारी मति ज्ञान है · अर्थात् चिन्तन किए बिना भी श्रुत का मति ज्ञान श्रुत के अनुसार होता ही है । (८८१)
तत्वार्थ वृत्ताप्युक्तम्-"मति ज्ञानी तावत् श्रुत ज्ञानोपलब्धेषु अर्थेषु यदाक्षर
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