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इस तरह मनः पर्यव ज्ञान के विषय को द्रव्य से दो प्रकार का कहा है। अब इसके विषय में क्षेत्र के आधार पर बात कहते हैं । (६२७)
अधस्तिर्यग्लोक मध्या द्वेत्ति रत्न प्रभाक्षि तौ । ऋजुधीर्यो जन सहस्त्रान्तं संज्ञि मनांस्यसौ ॥६२८॥ ज्योतिश्चक्रोपरितलं यावदूर्ध्वं स वीक्षते । तिर्यक् क्षेत्रं द्विपाथोधिसार्ध द्वीप द्वयात्मकम् ॥२६॥
ऋजुमति मनः पर्यव ज्ञानी नीचे तिर्यग् लोक के मध्य भाग से रत्नप्रभा नाम की नरक पृथ्वी (नारकी) में हजार योजन पर्यन्त संज्ञी जीवों के मन जानते हैं, ऊँचे ज्योति मंडल के ऊपर तल भाग तक देख सकते हैं और तिरछे दो समुद्र और अढाई द्वीप तक का विस्तार देख सकते हैं। (६२८-६२६)
उक्तं क्षेत्रं विपल धीनिर्मलं वीक्षते तथा । . विष्कम्भायामबाहल्यैः सार्धद्वयंगुल साधिकम् ॥६३०॥
परन्तु विपुलमति तो उक्त विस्तार क्षेत्र की लम्बाई-चौड़ाई-मोटाई अढाई. अंगुल अधिक होती हो, फिर भी निर्मलता से देख सकते हैं । (६३०) ...
"अयं भगवती सूत्र वृत्ति राजप्रश्नीय वृत्ति नंदी सूत्र नन्दी मलयगिरीय वृत्ति विशेषावश्यक वृत्ति कर्म ग्रन्थ वृत्त्याद्यभिप्रायः॥". ,
यह भगवती सूत्र वृत्ति, राजप्रश्नीय वृत्ति, नन्दीसूत्र, नन्दी सूत्र के ऊपर की मलयगिरि की वृत्ति, विशेषावश्यक वृत्ति और कर्मग्रन्थ वृत्ति आदि का अभिप्राय है।
"सामान्यं घटादिवस्तु मात्र चिन्तन परिणाम ग्राहि किंचिद् विशुद्धतरं अर्धतृतीयांगुलहीन मनुष्य क्षेत्र विषयं ज्ञानं ऋजुमति लब्धिः। संपूर्ण मनुष्य क्षेत्र विषय विपुलमति लब्धिः इति प्रवचन सारोद्धार वृत्त्यौपपातिकवृत्त्योः लिखितम्॥"
'प्रवचन सारोद्धार तथा उव्वाइ सूत्र की वृत्ति में इस सम्बन्ध में इस तरह कहा है कि-घटादि वस्तु का केवल चिन्तवन के परिणाम ग्रहण करने वाला है वह विशेष अशुद्ध अढाई अंगुल कम रहता है इतना मनुष्य क्षेत्र उसका विषय हैऐसा सामान्य ज्ञान ऋजुमति का है जबकि विपुलमति के ज्ञान का विषय तो संपूर्ण मनुष्य क्षेत्र है।'
"अर्ध तृतीय द्वीप समुद्रेषु अर्ध तृतीयांगुल हीनेषु संज्ञिमनांसि ऋजुमतिः