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जानाति। विपुलमति अर्ध तृतीयैः अंगुलः अभ्यधिकेषु॥ इति चार्थतः श्री ज्ञानसूरिकृतावश्यका चूर्णी॥" ___तथा ज्ञान सूरीश्वर कृत आवश्यक सूत्र की टीका में इस प्रकार भावार्थ हैअढाई द्वीप समुद्रों में से अढाई अंगुल कम करते रहें-इतने क्षेत्र में रहे संज्ञी जीवों का मन ऋजुमति जानता है और विपुलमति इससे अढाई अंगुल अधिक क्षेत्र के संज्ञी जीवों के मन जानता है ।
ऋजुधीः कालतः पल्यासंख्य भागं जघन्यतः । अतीतानागतं जानात्युत्कर्षादपि तन्मितम् ॥६३१॥ तावत्काल भूत भावि मनः पर्याय बोधतः । तावन्तमेव विपुलधीस्तु पश्यति निर्मलम् ॥६३२॥
ऋजुमति जघन्यता से पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितना अतीत अनागत काल जानता है । उत्कृष्ट रूप से भी उतना ही जानता है। विपुलमति मनः पर्यव ज्ञानी भी उतने ही भूत भावीकाल को जानता है परन्तु यह निर्मलता से जानता है। (६३१-६३२)
सर्वभावानन्तभाग वर्तिनोऽनन्त पर्यवान् । . ऋजुधीर्भावतो वेत्ति विपुलस्तांश्च निर्मलान् ॥६३३॥
इति मनः पर्याय विषयः॥ ऋजुमति भाव से सर्व पदार्थों के अनन्तवें भाग में रहे अनन्त पर्यायों को जानता है। विपुलमति इन पर्यायों को निर्मल रूप में जानता है । (६३३)
इस तरह मनः पर्यव ज्ञान के विषय का स्वरूप है। . केवली द्रव्यतः सर्व द्रव्यं मूर्तमममूर्त्तकम् ।
क्षेत्रतः सकलं क्षेत्रं सर्व कालं च कालतः ॥६३४॥ भावतः सर्व पर्यायान् प्रति द्रव्यमनन्तकान् । भावतो भाविनो भूतान् सम्यग् जानाति पश्यति ॥६३५॥ युग्मं। विहायः कालयोः सर्व द्रव्येषु संगतावपि । पृथगुक्तिः पुनः क्षेत्र कालरूढयेति चिन्त्यताम् ॥६३६॥
इति केवल ज्ञान विषयः॥ अब केवल ज्ञान के विषय में कहते हैं - केवल ज्ञानी रूपी- अरूपी सर्व