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द्रव्यों, सर्व काल, सर्व क्षेत्र को देखते हैं । और भाव से प्रत्येक द्रव्य के अनन्त पर्याय, भूत, भविष्य और वर्तमान- इस तरह सर्व काल को सम्यग् प्रकार से जानते हैं, देखते हैं । आकाश और काल का सर्व द्रव्यों में समावेश हो जाता है फिर भी अलग कहा है । वह इसलिए कि क्षेत्र और काल कहने की रूढ़ि ऐसी है । (६३५-३६) इस तरह केवल ज्ञान का स्वरूप है ।
मत्यज्ञानी तु मिथ्यात्वमिश्रेणावग्रहादिना । औत्पत्तिक्यादिना यद्वा पदार्थान् विषयीकृतान् ॥ ६३७॥
वेत्त्यवायादिनातांश्च पश्यत्यवग्रहादिना । मत्यज्ञानेन विशेष सामान्यवगमात्माना ॥ ६३८॥ युग्मं ।
अब तीन अज्ञान के विषय में कहते हैं कि - १ - मति अज्ञानी मनुष्य मिथ्यात्व मिश्र अवग्रह आदि अथवा उत्पत्ति की बुद्धि आदि के विषय रूप पदार्थों को मति अज्ञान के कारण विशेष सामान्य बोधात्मक अंवाय आदि से जानता है और अवग्रह आदि से देखता है। (६३७-६३८)
मत्यज्ञान परिगतं क्षेत्रं कालं च वेत्यसौ
मत्यज्ञान परिगतान् स वेत्ति पर्यवान पि ॥ ६३६ ॥
और वह मति अज्ञान से परिगत क्षेत्र और काल को जानता है, तथा इसी तरह मति अज्ञान से पर्याय को भी जानता हैं। (६३६)
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श्रुताज्ञानी पुनर्मिथ्याश्रुत सन्दर्भगर्भितान् ।
द्रव्य क्षेत्र काल भावान् वेत्ति प्रज्ञापत्यपि ॥ ६४०॥
श्रुत अज्ञानी मनुष्य मिथ्याश्रुत युक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को
जानता है और अन्य का प्ररूपण (कथन) भी करता है । (६४०)
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एवं विभगानुगतान् विभंग ज्ञानवानपि ।
द्रव्य क्षेत्र काल भावान् कथंचिद्वेत्ति पश्यति ॥ ६४१ ॥ यथा स शिव राजर्षिर्दिशां प्रोक्षक तापसः । विभंग ज्ञानतोऽपश्यत् सप्तद्वीप पयोनिधीन् ॥६४२ ॥ निशम्य तान संख्येयान् जगद्गुरु निरूपितान् । संदिहानो वीर पार्श्वे प्रवज्य स ययो शिवम् ॥६४३ ॥ ३- इसी तरह विभंग ज्ञानी भी विभंग ज्ञान के अनुगत द्रव्य,
क्षेत्र;"
'काल
और