________________
(२४६)
अत्रोच्यतेएतान्याद्य ज्ञान युग्मेऽन्त तान्यखिलान्यपि । इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष निमित्तक तया किल ॥६५६॥ अ प्रमाणानि वामनि मिथ्या दर्शन योगतः । असद् बोध व्यापृतेश्चोन्मत्त वाक्य प्रयोगवत् ॥६६०॥
इस प्रश्न का उत्तर देते हैं कि- इन सब प्रमाणों का पहले दो प्रमाण में समावेश हो जाता है क्योंकि ये दोनों ज्ञान इन्द्रियार्थ के संनिकर्ष रूप से होते हैं। अन्यथा मिथ्यादर्शन के योग से असत् बोध के व्यापार के कारण से उन्मत्त की वाचालता के समान वह सब अप्रमाण हैं। (६५६-६६०)
पंचानामप्यथैतेषां सहभावो विचार्यते । एकं द्वे त्रीणि चत्वारि स्युः सहैकत्र देहिनि ॥६६१॥. . .
अब इन पांचों ज्ञान का सहभाव अथवा एकत्रवास में विचार करना चाहिए क्योंकि इनमें से एक, दो, तीन या चार तक एक साथ में एक ही प्राणी में : हो सकते हैं। (६६१) तथाहि- प्राप्तं निसर्ग सम्यक्त्वं येनस्यात्तस्य केवलम् ।
मति ज्ञान मनवाप्त श्रुतस्यापि शरीरिणः ॥६६२॥ अतः एव मतिर्यत्र श्रुतं तत्र न निश्चितम् ।
श्रुतं यत्र मतिर्ज्ञान तत्र निश्चतमेव हि ॥६६३॥ अयं तत्वार्थ वृत्याद्यभिप्रायः॥
तथा जिस प्राणी को निसर्गतः सम्यकत्व प्राप्त हुआ हो उसे श्रुतज्ञान की प्राप्ति के बिना भी केवल मति ज्ञान तो होता है; इसके कारण से "मतिः यत्र श्रुतं . तत्र" अर्थात् जहां मति-बुद्धि होती है वहां श्रुत होता है- यह बात निश्चित नहीं है, परन्तु जहां श्रुत होता है वहां मति ज्ञान होता है- यह बात निश्चित है। (६६२-६६३)
इस प्रकार तत्त्वार्थ वृत्ति आदि का अभिप्राय है ।
नन्दी सूत्रादौ तु- "जत्थ मइ नाणं तत्त्थ सूअ नाणं । जत्थ सुअ नाणं तत्थ मइ नाणं। इत्युक्तम् ॥"
नन्दी सूत्र आदि में तो कहा है- 'जहां मति ज्ञान है वहां श्रुत ज्ञान है और जहां श्रुत ज्ञान है वहां मति ज्ञान है।'