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(२३०) मतिज्ञान श्रुतज्ञाने एव मिथ्यात्व योगतः ।।
अज्ञान संज्ञां भजतो नीच संगादिवोत्तमः ॥८७२॥
मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान दोनों मिथ्यात्व के योग से ही अज्ञान संज्ञा प्राप्त करते हैं। जैसे उत्तम पुरुष नीच के संग से नीचा गिना जाता है। (८७२)
तथोक्तम्
अविसेसिया मइच्चिइ समदिट्ठिस्स सा मइ नाणं । मइ अनाणं मिथ्या दिहिस्स सुअं पि एमेव ॥ .
इस विषय में कहा है कि- मति तो भेद रहित एक ही प्रकार की है परन्तु सम्यक् दृष्टि की मति ज्ञान रूप है और मिथ्यादृष्टि की मति अज्ञान रूप है। इसी तरह से श्रुत के विषय में भी समझ लेना । (१)
भंगा विकल्पा विशुद्धाः स्युस्तेऽत्रेति विभंगकम् । .. विरूपो वावधेर्भगो भेदोऽयं तद्विभंगकम् ॥८७३॥
भंग अर्थात् विकल्प । विशुद्ध भंग यह विभंग है। विभंग अर्थात् विपरीतं विकल्प जिसमें हो वह ज्ञान विभंग ज्ञान कहलाता है अथवा भंग ज्ञान का विपरीत भेद वह विभंग ज्ञान- इस तरह भी अर्थ लिया जाता है। (८७३)
एतच्च ग्राम नगर सन्निवेशादि संस्थितम् ।।
समुद्र द्वीप वृक्षादि नाना संस्थान संस्थितम् ॥८७४॥
तथा यह विभंग ज्ञान गांव, नगर और सन्निवेश आदि के तथा समुद्र, द्वीप और वृक्षों आदि के नाना प्रकार के संस्थान के समान होता है । (८७४)
अष्टानामप्यर्थतेषां विषयान्वर्णयाम्यहम ।। द्रव्य क्षेत्र काल भावैः द्रव्यतस्तत्र कथ्यते ॥८७५॥
अब उन पांच ज्ञान तथा तीन अज्ञान- इस तरह कुल आठ का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से वर्णन किया जाता है। (८७५)
सामान्यतो मति ज्ञानी सर्व द्रव्याणि बुध्यते । विशेषतोऽपि देशादिभेदैस्तानवगच्छति ॥८७६॥ किन्तु तद्गतनिःशेष विशेषापेक्षयास्फूटान् । ' एष धर्मास्ति कायादीन् पश्चेत्सर्वाव्मना तु न ।८७७॥ योग्य देशस्थितान् शब्दादींस्तु जानाति पश्यति । . श्रुत भावि तया बुद्ध्या सर्व द्रव्याणि वेत्ति वा ॥८७८॥