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सकता है और उत्कृष्ट रूप में अंसंख्यात भूत तथा भावी अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल जान सकता है । क्योंकि उतने समय में तो इतने भूत और भावी रूपी द्रव्यों का बोध हो जाता है । (६०२-६०३)
पर्यायान् भावतोऽनन्ता नेष वेत्ति जघन्यतः । आधार द्रव्यानन्त्येन प्रतिद्रव्यं तु नेयतः ॥९०४॥
अवधि ज्ञानी भाव से - जघन्यता से आधार रूप अनन्त द्रव्यों के आधेय अनन्त पर्यायों को जानता है, परन्तु प्रत्येक द्रव्य के उतने पर्याय नहीं जानता है। (६०४)
उत्कर्षतोऽपि पर्यायाननन्तान् वेत्ति पश्यति ।
सर्वेषा पर्यवाणां चानन्तेऽशे तेऽपि पर्यवा ॥ ६०५॥
उत्कृष्ट रूप में भी वह अनन्त पर्यायों को जानता है और देखता है जबकि ये अनन्त पर्याय भी सर्व पर्यायों के अनन्तृवें भाग होते हैं। (६०५) अथावधेर्विषययोर्नियमः क्षेत्र कांलयो : 1. मिथो विभाव्यते वृद्धिमाश्रित्य श्रुत वर्णितः ॥ ६०६॥
अब अवधि ज्ञान के क्षेत्र और कालरूप विषयों का परस्पर वृद्धि सम्बन्धी जो नियम शास्त्र में वर्णन किया है उसे कहते हैं । (६०६)
अंगुलस्यासंख्यभागं क्षेत्रतो यो निरीक्षते । आवल्यसंख्येय भागं कालतः स निरीक्षते ॥ ६०७ ॥
अंगुल का असंख्यातवां भाग क्षेत्र से जितना विस्तार में हो उतना उसे जान सकता है, व काल से एक अंगुल का असंख्यातवां भाग कितना है यह जान सकता है । (६०७)
प्रमाणांगुलमत्राहुः केचित् क्षेत्राधिकारतः । अवघेरधिकाराच्च के चनात्रोच्छू यांगुलम् ॥१०८॥
अंगुल को कई यहां क्षेत्र का अधिकार होने से प्रमाण अंगुल कहते हैं, जबकि और कई यहां अवधि ज्ञान का अधिकार है - इस तरह कहकर उत्सेधांगुल कहते हैं। (६०८)
यश्चांगुलस्य संख्येयं क्षेत्रतो भागमीक्षते ।
आवल्या अपि संख्येयं कालतोंऽशं स वीक्षते ॥ ६०६ ॥