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शंका का समाधान इस तरह है कि-अवधि ज्ञान उत्कृष्ट रूप में सर्व 'लोक को जानने वाला है तथा वह संयमी-असंयमी मनुष्यों को तथा तिर्यंचों को भी होता है। परन्तु मनः पर्यव ज्ञान अनेक पर्यायों को जानने वाला होता है, पहले से अधिक निर्मल होता है, अप्रमत्त संयमी मुनिवर्य को ही होता है और मनुष्य क्षेत्र का ही गोचर होता है। (८५७-८५८) ___. उक्तं च तत्त्वार्थ भाष्य- "विशुद्धि क्षेत्र स्वामि विषयेभ्योऽवधि मनः पर्यवयोर्विशेषः ॥" इति॥
तत्त्वार्थ भाष्य में भी कहा है- अवधि और मनः पर्यव ज्ञान में विशुद्धि से क्षेत्र की अपेक्षा से और स्वामि के विषय में भिन्नता है।
सामान्य ग्राहि ननु यन्मनः पर्यायमादिमम् । तदस्य दर्शनं किं न सामान्य ग्रहणात्मकम् ॥८५६॥
यहां कोई प्रश्न करता है कि- जब ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान सामान्य ग्राही है तब सामान्य ग्रहणात्मक दर्शन ऐसा क्यों नहीं है ? (८५६) अत्रोच्यते .... विशेषमेकं द्वौ त्रीन्वा गृह्णात्युजुमतिः किल ।
ईष्टे बहून् विशेषांश्च परिच्छेत्तुमयं न यत् ॥८६०॥ सामान्य ग्राह्यसौ तस्मात् स्तोक ग्राहितया भवेत् । सामान्य शब्दः स्तोकार्थो न त्वत्र दर्शनार्थकः ॥८६१॥
इस प्रश्न का उत्तर देते हैं कि ऋजुमति एक, दो या तीन विषयों को अधिक से अधिक ग्रहण कर सकता है, बहुत विषयों को ग्रहण कर लेने की इसमें सामर्थ्य नहीं होती, इस तरह अल्प ग्रहण करने वाला होने से इसे सामान्य ग्राही कहा है। यहां .. सामान्य शब्द अल्प के अर्थ में समझना, दर्शन के अर्थ में नहीं है । (८६०-८६१)
कर्मक्षयोपशम जोत्कर्षाद्विपुल धीः पुनः । बहून विशेषान्वेत्यत्र बह्वर्थो विपुल ध्वनिः ॥८६२॥ न चाभ्यधायि सिद्धान्ते कुत्राप्येतस्य दर्शनम् । दर्शनात्मक सामान्य ग्राहिता नैतयोस्ततः ॥८६३॥
परन्तु विषयों को ग्रहण कर सकता है । यहां विपुल शब्द बहुवाची है तथा शास्त्र में भी कहीं इसे दर्शन रूप नहीं कहा है, इसलिए इन दोनों को दर्शनात्मक सामान्य ग्राहिता नहीं है। (८६२-८६३)