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में उत्पन्न हुआ हो वहां से वापिस गिरे नहीं, परन्तु जब तक केवल ज्ञान होता है तब तक वहीं टिका रहे वह अवस्थित है। यह ज्ञान भवक्षय होने पर जाति अन्तर में भी लिंग के समान रहता है । जिस तरह प्राणी इस जन्म में लिंग अर्थात् पुरुषादि वेद प्राप्त करके अन्य जन्म में जाता है वैसे ही अवधि ज्ञान भी अन्य जन्म में जाता है ।
नृतिरश्चामयं षोढा क्षायोपशमिको ऽवधि | भवेद्भव प्रत्ययश्च देवनारकयोरिह 11911
ये छः प्रकार का अवधि ज्ञान मनुष्य और तिर्यंचों को क्षायोपशमिक होता है और देव तथा नारकी जीवों को भव प्रत्ययिक होता है । (१)
तदुक्तम्- "द्विविधः अवधिः । भव प्रत्ययः क्षयोपशमनिमित्तश्च ॥ इति तत्त्वार्थ सूत्रे ॥"
तत्वार्थ सूत्र में भी कहा है कि अवधि ज्ञान दो प्रकार का होता है- भव प्रत्यय और क्षायोपशमिक ।
स्याद् भव प्रत्ययो ऽप्येष न क्षयोपशमं बिना । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां हेतुत्वादस्य किन्त्विह ॥ २ ॥ स्यात्लयोपशमे हेतुर्भवोऽयं तदसौ तथा । उपचाराद्धेतु हेतुरपिं हेतुरिहोदितः
॥३॥
इति अवधि ज्ञानम् ॥
तथा यह भव प्रत्ययं भी क्षयोपशम बिना नहीं होता, क्योंकि अन्वय और व्यतिरेक से भव प्रत्यय इसका हेतु - कारणभूत है जबकि क्षयोपशम में तो यह भव हेतुभूत हैं, फिर भी हेतु का हेतु भी हेतु ही कहलाता है। ऐसा उपचार है। (२-३) इस तरह अवधि ज्ञान का स्वरूप कहा है I
मनस्त्वेन परिणत द्रव्याणां यस्तु पर्यवः । परिच्छेदः सहि मनः पर्यवज्ञानमुच्यते ॥८५० ॥ मनोद्रव्यस्य पर्याया नानावस्थात्मका हि ये । तेषां ज्ञानं खलु मनः पर्याय ज्ञानमुच्यते ॥८५१ ॥
यद्वा
अब चौथे मनः पर्यव ज्ञान के विषय में कहते हैं, मनस्त्व के द्वारा परिणत
हुआ द्रव्यों का पर्यव, पर्याय अथवा परिच्छेद- इसका नाम मनः पर्यव ज्ञान है