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वह अवधि ज्ञान छः प्रकार का है- १- अनुगामी, २- अननुगामी, ३वर्धमान, ४- क्षयी, ५- प्रतिपाती और ६- अप्रतिपाती।।८३६॥
यद्विदेशान्तरगतमप्यन्वेति स्व धारिणम् ।। अनुगाम्यवधिज्ञानं तच्छं खलित दीपवत् ॥८४॥
कोई अवधि ज्ञानी जीव यात्रा प्रवास में गया हो तब उसके नेत्र के समान जो ज्ञान उसके पीछे अनुगमन करे वह अनुगामी अवधि ज्ञान है। (८४०)
यत्र क्षेत्रे समुत्पन्नं यत्तत्रैवावबोध कृत् ।। द्वितीयमवधिज्ञानं तच्छं खलित दीपवत् ॥८४१॥
जो ज्ञान जिस क्षेत्र में उत्पन्न हुआ हो वहीं श्रृंखला बद्ध-संकल के साथ में बंधे हुए दीपक के समान प्रकाश-बोध करे, वह अननुगामी नामक अवधि ज्ञान है। (८४१)
यदंगुलस्यासंख्ये भागादि विषयं पुरा । समुत्पद्यानु विषय विस्तारेण विवर्धते ॥८४२॥ अलोके लोक मात्राणि यावत्खंडान्यसंख्यशः । स्यात्प्रकाशयितुं शक्तं वर्धमानं तदीरितम् ॥८४३॥ युग्मं।
एक अंगुल का असंख्यातवां भाग ही जिसका विषय हो गया हो उसका जो ज्ञान उत्पन्न हो और फिर उस विषय के विस्तार से वृद्धि होती है और अलोक के विषय भी लोकाकाश के समान असंख्य गोलों को प्रकाशित करने की जिसमें शक्ति है वह ज्ञान वर्धमान अवधि ज्ञान कहलाता है। (८४२-८४३)
अप्रशस्ताद्वयवसायात् हीयते यत्प्रतिक्षणम् । आहू स्तदवधिज्ञानं हीनमानं मुनीश्वराः ॥८४४॥
अप्रशस्त व्यवसाय के कारण जो प्रति समय क्षीण होता जाता है उसे मुनीश्वर क्षीण अवधि ज्ञान कहते हैं। (८४४)
स्याद्वर्धमानं शुष्कोपचीयमानेन्बधनाग्निवत् । . . हीयमानं परिमिता तादृगिन्धनवह्निवत् ॥८४५॥
. जिसमें बार-बार सूखे ईंधन एकत्रित किए हो उस अग्नि के समान वर्धमान अवधि ज्ञान है और जिसमें अल्प प्रमाण में और हरा काष्ठ डाला हो उस अग्नि के समान क्षीण अवधि ज्ञान है । (८४५)