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शिल्पमाचार्योपदेशाल्लब्धं स्यात्कर्म च स्वतः । नित्य व्यापारश्च शिल्पं कादाचित्कं तु कर्म वा ॥७५५॥ या कर्माभिनिवेशोत्थ लब्धतत्त्परमार्थिका । कर्माभ्यास विचाराभ्यां विस्तीर्णा तद्यशः फला ॥७५६॥
तत्तत्कर्म विशेषेसु समर्था कार्मिकी मतिः । केषुचिद् दृश्यते सा च चित्रकारादि कारूषु ॥७५७॥ ( युग्मं । ) आचार्य के उपदेश से प्राप्त हुआ हो वह शिल्प और स्वतः प्राप्त किया हो वह कर्म अथवा नित्य का व्यापार आदि शिल्प, तथा किसी ही दिन करे वह कर्म, कर्म के विषय -अमुक कार्य के विषय में अत्यंत सावधानी रखने से उसमें उसका परम रहस्य प्राप्त कराने वाले अभ्यास और विचार से विस्तार प्राप्त करने वाली, इसका यश रूपी फल प्राप्त कराने वाली और अनेक नाना प्रकार के कार्यों को करने की सामर्थ्य प्राप्त कराने वाली बुद्धिं कार्मिका बुद्धि कहलाती है और वह चित्रकार आदि कलाकारों में दिखती है । (७५५ से ७५७)
सुदीर्घ कालं यः पूर्वापरार्था लोचनादिजः । आत्मधर्मः सोऽत्र परिणामस्तत्प्रभवा तु या ॥७५८ ॥ अनुमान हेतु मात्र दृष्टान्तैः साध्य साधिका । वयो विपाकेन पुष्टीभूताभ्युदय मोक्षदा ॥७५६॥ अभयादेरिव ज्ञेया तुर्या सा परिणामिकी | आभ्योऽधिका पंचमी तु नार्हताप्युपलभ्यते ॥७६०॥
विशेषकम् ।
.. चिरकाल तक पदार्थों का ऊहापोह (तर्क-वितर्क या सोच विचार) करने से परिणाम रूप आत्मं धर्म से उत्पन्न हुआ । केवल अनुमान हेतु रूप दृष्टान्तों से ही साध्य को सिद्ध करने वाली उम्र की वृद्धि के साथ - साथ में पुष्ट हो जाये और अभ्युदय होने से मोक्ष देने वाली अभयकुमार आदि के समान बुद्धि चौथी परिणामी की नाम की बुद्धि कहलाती है। इससे अधिक कोई और बुद्धि नहीं है । वह तीर्थंकर परमात्मा को भी उपलब्ध नहीं होती। (७५८ से ७६०)
- यद् द्वेधैव मति लोके प्रथमा श्रुत निश्रिता । शास्त्रं संस्कृत बुद्धेः सा शास्त्रर्धा लोचनानोद्भवा ॥७६१॥