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एतल्लक्षणं चैवम्
शास्त्रक देश सम्बद्धं, शास्त्र कार्यान्तरे स्थितम् ।
आहुः प्रकरणं नाम ग्रन्थभेदं विपश्चितः ॥८०१॥
प्रकरण का लक्षण इस प्रकार कहते हैं - शास्त्र के अमुक एकाध विभाग की जिसमें चर्चा की गयी है और जो शास्त्र के कार्य में स्थित हो, ऐसे ग्रन्थ को 'प्रकरण' कहा है । (८०१ )
तवं च वक्तृवैशिष्टयादस्य द्वैविध्यमीरितम् । वस्तुतोऽर्ह प्रणीतार्थमेकमेवाखिलं श्रुतम् ॥८.०२ ॥
इसी तरह वक्ता की विशिष्टता के कारण इस श्रुत के दो भेद कहे हैं. परन्तु वस्तुतः तो इस अर्थ से अर्हत भगवान् का रचा हुआ सार एक ही है। (८०२) तथोक्तं तत्त्वार्थ भाष्ये "वक्तु विशेषात् द्वैविध्यमिति । "
इस विषय में तत्त्वार्थ भाष्य में सूत्र है कि- 'वक्ता अलग-अलग दो प्रकार. के होते हैं।'
किंच
. व्याकरणच्छन्दोऽलंकृत काव्य नाट्य तर्क गणितादि ।
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सम्यग् दृष्टि परिग्रहपूतं सम्यक् श्रुतं जयति ॥ ८०३ ॥
तथा व्याकरण शास्त्र, छंद शास्त्र, अलंकार शास्त्र, काव्य, नाटक, तर्कशास्त्र, गणित शास्त्र आदि जो सम्यग् दृष्टि के ग्रहण से शुद्ध हुआ है, वह सारा सम्यग् श्रुत है और वही विजयी बनता है । (८०३)
मिथ्याश्रुतं तु मिथ्यात्वि लोकैः स्वमति कल्पितम् ।
रामायण भारतादि वेद वेदांगकादि च ॥ ५०४ ॥
मित्थात्वी लोगों ने अपनी मति अनुसार कल्पना की है वह मिथ्या श्रुत है जैसे कि रामायण, महाभारत, आदि तथा वेद-वेदांग आदि हैं। (८०४)
उक्तं च भाष्य कृता
सदसदविसेसणाओ भवहेउ जहित्थि ओवलं भाओ ।
नाण फला भावओ मित्थदिट्ठिस्य अन्नाणम् ॥१ ॥
पूर्वान्तर्गतेय गाथा ।
भाष्यकार ने भी इस सम्बन्ध में कहा है कि- सत् असत् का अन्तर