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प्रत्याख्यानं विधा प्रवाद कल्याण नामधेये च । प्राणावायं च क्रिया विशालमथ लोकबिन्दुसारमिति ॥७६५॥
यह चौदह पूर्व इस तरह है- १- उत्पाद प्रवाद, २- अग्रायणीय प्रवाद, ३- वीर्यं प्रवाद,४- अस्ति प्रवाद,५- ज्ञान प्रवाद,६- सत्य प्रवाद,७- आत्म प्रवाद, .८- कर्म प्रवाद,६- प्रत्याख्यान प्रवाद, १०- विधा प्रवाद, ११- कल्याण प्रवाद,
१२- प्राणावाय प्रवाद, १३- क्रिया विशाल प्रवाद और १४- लोक बिन्दुसार प्रवाद। .(७६४-७६५)
दृष्टि वादः पंचधायमंगं द्वादशमुच्यते। उपांग मूल सूत्रादि स्यादनंगात्मक च तत् ॥७६६॥
इस तरह पांच प्रकार का दृष्टिवाद कहा है, वह बारहवां अंग कहा है। उपांग तथा मूल सूत्रं आदि अनंगात्मक हैं । (७६६) एवं च- यदुक्तमर्थतोऽर्हद्भिः संदृब्धं सूत्रतश्च यत् ।
महाधीभिर्गणधरैस्तत्स्यादंगात्मकं श्रुतम् ॥७६७॥ ततो गणधराणां यत्पारं पर्याप्त वाङ्मयैः । शिष्य प्रशिष्यैराचार्यैः प्राज्यवाङ्मति शक्तिभिः॥७६८॥ · काल संहननायुर्दोषादल्पशक्ति धी स्पृशाम् ।
. अनुग्रहाय संदृब्धं तदनंगात्मकं श्रुतम् ॥७६६॥ युग्मं। . इस तरह श्री जिनेश्वर भगवन्त ने अर्थ से कहा था और बुद्धिशाली गणधरों ने सूत्र के द्वारा गूंथा है- यह प्रथम अंगात्मश्रुत है । उसके बाद परम्परा से वाङ्मय प्राप्तकर उत्कृष्ट वचन बुद्धि की शक्ति वाले गणधरों के शिष्य प्रशिष्य आचार्यों ने काल संघयण और आयुष्य की कमी के कारण बुद्धि में बैठ जाये, इसलिए जीवों के कल्याण के लिए जो रचना की है वह अनंगात्मक श्रुत अर्थात् अंगबाह्य श्रुत है । (७६७-७६६)
सष्टान्यज्ञोपकाराय तेभ्योऽप्यक्तिनर्षिभिः। शास्त्रैक देश संबद्धान्येवं प्रकरणान्यपि ॥८००॥
इसी ही प्रकार अज्ञानी जीवों के उपकारार्थ अर्वाचीन आचार्यों ने शास्त्रों के अमुक विभाग से ही सम्बन्धी ऐसे प्रकरणों की भी रचना की है। (८००)