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भी हो- वह संज्ञि श्रुत कहलाता है। इससे उलटा हो वह असंज्ञिश्रुत कहलाता है। जिनेश्वर भगवन्त भाषित आवश्यक आदि सम्यक्श्रुत कहलाता है और मिथ्यात्वी का शास्त्र भी यदि सम्यक् दृष्टि द्वारा ग्रहण किया हो वह भी सम्यक् श्रुत कहलाता है। इस तरह प्रथम आवश्यक और दूसरा आवश्यक से अपर- दूसरा इस प्रकार सम्यक् श्रुत दो प्रकार का है। इसमें आवश्यक के छह भेद होते हैं । (७८७-७८८)
तथाहि- "सामाइयं चउवीसत्थओ पंदणयं पाडिक्कमणं काउसस्गो पच्चख्खाणं इति ॥"
वे छः भेद इस प्रकार हैं- १- सामायिक, २- चउविसत्थो, ३- वंदण, ४- प्रतिक्रमण, ५- काउसस्ग और ६- पच्चख्खाण ।
आवश्यकेतरच्चांगानंगात्मकतया द्विधा । अंगान्येकादश दृष्टिवादश्चांगात्मकं भवेत् ॥७६०॥
सम्यग् श्रुत का दूसरा भेद 'आवश्यक से अपर' है । इसके १- अंग और २- अनंग, ये दो भेद हैं, इसमें ग्यारह अंग और दृष्टिवाद अर्थात् अंगात्मक हैं। (७६०)
आचारांगं सूत्रकृतं स्थानांगं समवाय युग । पंचमं भगवत्यंगं ज्ञाताधर्मकथापि च ॥७६१॥ उपासकान्त कृदनुत्तरो पपाति का दशाः । प्रश्न व्याकरणं चैव विपाक श्रुतमेव च ॥७६२॥
१- आचारांग सूत्र, २- सूयगडांग, ३- ठाणांग, ४- समवायांग, ५- भगवती, ६- ज्ञाताधकथा, ७- उपासक दशांग, ८- अन्तगडदशांग, ६अनुत्तरोववार, १०- प्रश्न व्याकरण और ११- विपाक सूत्र । ये ग्यारह अंग कहलाते हैं । (७६१-७६२)
परिकर्म सूत्र पूर्वानुयोग पूर्वगत चूलिकाः पंच । स्युर्दष्टिवाद भेदाः पूर्वाणि चतुर्दशापि पूर्वगते ॥७६३॥
१- परिकर्म, २- सूत्र, ३- पूर्वानुयोग, ४- पूर्वगत और ५- चूलिका; इस तरह पांच प्रकार का दृष्टिवाद है। पूर्वगत में पूर्वो का समावेश होता है । (७६३)
तानि चैवम्:उत्पादपूर्वमग्रायणीयमथ वीर्यतः प्रवादं स्यात् । अस्तेानात्सत्त्वात्तदात्मनः कर्मणश्च परम् ॥७६४॥ .