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(२१२) कराने वाले अक्षरों की जो उपलब्धि है वह तीसरा लब्धक्षर श्रुत ज्ञान कहलाता है । (७८०-७८१)
तच्च लब्ध्यक्षरं षोढा यत् श्रोत्रादिभिरिन्द्रयैः । बोधोऽक्षरानुविद्धं स्याच्छब्दार्था लोचनात्मकः ॥७८२॥ यथा शब्द श्रवणतो रूप दर्शनतोऽथवा। देवदत्तोयमित्येवं रूपो बोधो भवेदिह ॥७८३॥ ..
एवं शेषेन्द्रियस्य भावना कार्या॥ .. यह लब्धि अक्षर श्रुत ज्ञान छह प्रकार का है, क्योंकि अक्षर को अनुबद्ध रूप में शब्दार्थ समझने रूप बोध श्रोत्र आदि पांच इन्द्रिय और छठा मन- इस तरह छह के द्वारा होता है। जैसे कि 'देवदत्त' का शब्द सुनने से अथवा उसका रूप देखने से यह देवदत्त है' इस प्रकार बोध-ज्ञान होता है। (७८२-७८३) ...
इसी तरह अन्य इन्द्रियों की भावना करना। . . तैरक्षरैरभिलाप्य भावानां प्रतिपादकम् ।. .
अक्षर श्रुतमुद्दिष्ट मनक्षर श्रुतं परम् ॥७८४॥
इस तरह संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर और लब्धि अक्षर- इन तीनों अक्षरों द्वारा वाणीगम्य पदार्थ का प्रतिपादन करने वाला जो ज्ञान है वह अक्षर श्रुत कहलाता है और शेष अनक्षर श्रुत कहलाता है। (७८४) तथोक्तम्- ऊससिनीससिअंनिच्छुरं खासिअंच छीअंच।
निस्संधियमणुसारं अणख्खरं छेलिया इयं ॥७८५॥ इस विषय में यह कहा है कि- श्वास लेना, निःश्वास छोड़ना, खांसी आना, थूकना, नाक से छींकना, हुंकार करना, चपटी (ताली) बजाना इत्यादि अनक्षर श्रुत ज्ञान है। (७८५) अयं भावः... कामितक्ष्वेडिताद्यं यन्मामाव्हयति वक्ति वा।
इत्याद्यन्याशय ग्राहि तत्स्यात् श्रुतमनक्षरम् ॥७८६॥ इसका भावार्थ इस तरह है- कोई व्यक्ति मुझे बुला रहा है अथवा मुझे कुछ कह रहा है इत्यादि अन्य का आशय समझाने वाला कांखना, आवाज करना इत्यादि ज्ञान अनक्षर श्रुत ज्ञान कहलाता है । (७८६)