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(२१०) यदागमः- "सव्व जीवाणं पिअणं अख्खरस्सअणंतभागो निच्चुग्याडिओ चिट्ठइ । जइ सोपि आवेरजा ता जीवो अजीवत्तणं पावेजा ॥ इति ॥" .
आगम में कहा है कि- 'सर्व जीवों के लिए अक्षर का अनन्तवां भाग नित्य ज्ञान रहता है । यह यदि आच्छादित हो जाये तो जीव में जीवत्व रहता नहीं हैवह अजीवत्व प्राप्त करता है।'
श्रुतज्ञानं पुननैवं भवेजीवस्य सर्वदा । आप्तोपदेशापेक्षं यत्स्यादेतन्मति पूर्वकम् ॥७७२॥
परन्तु यह श्रुतज्ञान जीव को सर्वदा नहीं होता क्योंकि वह तो बुद्धिपूर्वक .. आप्त पुरुष के उपदेश की अपेक्षा से रहता है। (७७२)
मतिज्ञानं स्पर्शनादीन्द्रियानिन्द्रिय हेतुकम्। श्रुतं तु स्याल्लब्धितोऽपि पदानुसारिणामिव ॥७७३॥ :
इत्यादि। अधिकं तत्त्वार्थ वृत्त्यादिभ्यः अवज्ञेयम्॥
तथा मति ज्ञान को स्पर्शन आदि इन्द्रिय और मन ये दोनों कारण हेतु- .. भूत हैं और श्रुत ज्ञान तो पदानुसारी लब्धि वाले की लब्धि से ही संभव होता है । (७७३)
इन कारणों से मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान दोनों के दो अलग भेद गिने हैं वह युक्त है। इस विषय में विशेष जानने की इच्छा वाले को तत्त्वार्थ वृत्ति आदि ग्रन्थों में से जान लेना चाहिए।
चतुर्दशविधं तच्च यद्वाविंशतिधा भवेत्। .. चतुर्दश विधत्वं तु तत्रैवं परिभाष्यते ॥७७४॥
यह श्रुत ज्ञान चौदह प्रकार का है अथवा इसके बीस भेद भी कहे हैं। जो चौदह भेद कहे जाते हैं, वे इस प्रकार से हैं । - (७७४)
अक्षर श्रुतमित्येकं स्याद् द्वितीयमनक्षरम् । तार्तीयिकं संज़िश्रुतं तुर्य श्रुतमसंजिनः॥७७५॥ सम्यक् श्रुतं पंचमं स्यात् षष्टं मिथ्याश्रुतं भवेत् । सादिश्रुतं सप्तमं स्यादनादि श्रुतमष्टमम् ॥७७६॥ सान्तश्रुतं तु नवममनन्तं दशमं श्रुतम् । एकादशं गमरूपमगमं द्वादशं पुनः ॥७७७॥