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वस्तु स्वरूप से विपरीत रूप में आचरण करना, इसका नाम मिथ्यादृष्टि है। ऐसी दृष्टि मिथ्यात्वी की होती है । (६८८)
अभिग्रहिकमाचं स्यादनाभिग्रहिकं परम् । तृतीयं किल मिथ्यात्व मुक्तमाभिनिवेशिकम् ॥६८६॥ तुर्य सांशयिकाख्यं स्यादनाभोगिकर्मान्तमम् । अभिग्रहेण निर्वृत्तं तत्राभिग्रहिकं स्मृतम् ॥६६०॥
इस मिथ्या दृष्टि अथवा मिथ्यात्व के पांच भेद हैं। उसमें प्रथम अभिग्रहिक, दूसरा अनाभिग्रहिक, तीसरा आभिनिवेशिक, चौथा सांशयिक और पांचवां अनाभोगिक है। उसमें १- अभिग्रह से जो निर्वृत्त हुआ हो वह अभिग्रहिक मिथ्यात्व कहलाता है । (६८६-६६०) ।
नाना कुदर्शनेष्वेकमस्यात्प्राणी कुदर्शनम् । इदमेव शुभं नान्यदित्येवं प्रतिपद्यते ॥६६१॥
ऐसे मिथ्यात्व वाला प्राणी अनेक कुदर्शनों में से यह एक कुदर्शन अच्छा है, अन्य कोई नहीं है । इस तरह उसे मानकर स्वीकार करता है । (६६१)
मन्यतेऽङ्गी दर्शनानि यद्वशादखिलान्यपि।
शुभानि माध्यस्थ्य हेतुरनाभिग्रहिकं हि तत् ॥६६२॥ . .. २- जिसके कारण से प्राणी सर्व दर्शनों का सार मानता है और इसके कारण से अपनी मध्यस्थता दिखाता है वह अनाभिग्राहिक मित्थात्व कहलाता है । (६६२) - यतो गोष्टा माहिलादि वदात्मीय कुदर्शने।
भवत्यभिनिवेशस्तं प्रोक्तमाभिनिवेशिकम् ॥६६३॥ . ३- गोष्टा माहिलादिक के समान जिससे अपने ही दर्शन (कुदर्शन) में अभिनिवेश-आसक्ति हो वह आभिनिवेशिक मित्यात्व है । (६६३)
यतो जिन प्रणीतेषु देशतः सर्वतोऽपि वा । पदार्थेषु संशयः स्यात्तत्सांशयिक मीरितम् ॥६६४॥
४- जिसके कारण जिनेश्वर प्रणीत तत्त्वों में अल्प अथवा पूर्ण रूप में संशय-शंका उत्पन्न हो, वह सांशयिक मिथ्यात्व है । (६६४) ।
अनाभोगेन निर्वृत्तमनाभोगिक संज्ञिकम् । यत्स्यादेकेन्द्रियादीनां मिथ्यात्वं पंचमं तु तत् ॥६६५॥