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(१६४) '५- अनाभोग से अर्थात् उपयोग बिना जो हुआ हो उसका नाम अनाभोगिक मिथ्यात्व कहलाता है । यह मिथ्यात्व एकेन्द्रिय आदि जीव को होता है । (६६५)
यस्यां जिनोक्त तत्त्वेषु न रागो नापि मत्सरः । सम्यग्मिथ्यात्व संज्ञा सा मिश्र दृष्टिः प्रकीर्तिता ॥६६६॥
धान्येष्विव नरा नालिकेर द्वीपनिवासितः । . जिनोक्तेषु मिश्रदृशौ न द्विष्टा नापि रागिणः ॥६६७॥ ....
तथा जिनोक्त तत्त्वों में राग भी न हो एवं द्वेष भी न हो- यह सम्यकत्व मिथ्यात्व नाम की मिश्रदृष्टि कहलाती है। ऐसी मिश्र दृष्टि वाला श्री जिनेश्वर. भगवान् के वचन पर राग-द्वेष नहीं रखता है । जैसे नारियल द्वीप में रहने वाले को अनाज के प्रति राग अथवा द्वेष नहीं होता, वैसे उसका होता है । (६६-६६७)
यदाहुः कर्मग्रन्थकाराःजिअ अजि अपुणा पावा सवसंवर बंध मुरूख निजरणा। जिणं सहहइ तं सम्मं खइगाइ बहु भेयं ॥६६८॥ मीसा न राग दोषो जिण धम्मे अन्तमहत्त जहा अन्ने। नालीअरदीव मणुणो मिच्छंजिण धम्म विवरीयं ॥६६॥
इस विषय में कर्म ग्रन्थ के कर्ता ने इस प्रकार कहा है कि- जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, बन्ध, मोक्ष और निर्जरा- इन नौ तत्त्वों पर श्रद्धा होनीइसका नाम सम्यक्दृष्टि है, जिसके क्षायिक आदि अन्य भेद हैं। नारियल द्वीप के मनुष्य को अनाज पर राग अथवा द्वेष नहीं होता, इसी तरह जिन धर्म के विषय में अंतर्मुहूर्त तक राग भी नहीं होता इसी प्रकार द्वेष भी नहीं होता। इसका नाम मिश्र दृष्टि और जिन धर्म से विपरीत आचार मिथ्या दृष्टि है । (६६८-६६६)
गुणस्थान क्रमारोहेत्वेवमुक्तम्ज्यात्यन्तर समुद्रभूतिर्वडवाखरयोये था। गुडदघ्नो: समायोगे रस भेदान्तरं यथा ॥१॥ तथा धर्म द्वये श्रद्धा जायते सम बद्धितः। मिश्रोऽसौ जायते तस्माद्भावो जात्यन्तरात्मकः ॥२॥
गुण स्थानक क्रमारोह में इस तरह कहा है कि- जैसे वडवा अर्थात् घोड़ी का खर-गधे के साथ में संयोग होने से एक अन्य तीसरी ही जाति की उत्पत्ति होती