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अर्थात् इसकी सविशेष निश्चय व्याख्या - अर्थ समझाने वाला है । इसके आधार पर व्यक्त अवग्रह कहलाता है । उसके आधार पर 'यह कुछ है' इतना ही कह सकते हैं । ऐसा अल्प निश्चय वाला सामान्य रूप से ही पहिचान सकते हैं वह केवल अवग्रह कहलाता है । इतने अवग्रह के बाद ही इहा आदि प्रवृत्ति होती हैं।
रत्नावकारिकायां च अवग्रह लक्षणमेवमुक्तम्
‘“विषय विषयि सन्निपातनन्तर समुद्भूत सत्ता मात्र गोचर दर्शनात् जात् आद्यम् अवान्तर सामान्याकार विशिष्ट वस्तु ग्रहणाम् अवग्रह इति । विषयः सामान्य विशेषात्मकः अर्थ। विषयी चक्षुरादिः । तयो समीचीनः भ्रान्त्याद्यजनकत्वेनानुकूलो निपातः योग्य देशाद्यवस्थानम् । तस्मादनन्तरं समुद्भूतम् उत्पन्नं यत्सत्तामात्र गोचरं निःशेष विशेष वैमुख्येन सन्मात्र विषय दर्शनं निराकारो बोधः तस्माज्जातम् आद्यम् सत्त्वसामान्यादंवान्तरैः सामान्याकारैः जाति विशेषैः विशिष्टस्य वस्तुनः यद्ग्रहणम् ज्ञानम् तद् अवग्रह इति नाम्ना अभिधीयते इति ॥ "
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'अत्र च प्राच्ययते दर्शनस्य अवकाशं न पश्यामः । द्वितीय मते च व्यंजनावग्रहावकाशं न पश्यामः। तदत्र तत्त्वं बहुश्रुतेभ्यः अवसेयम् ॥”
"वक्ष्यमाणो वा महाभाष्याभिमतो व्यंजनावग्रहादीनां दर्शस्य वा भेदः अनुकरणीयः । इत्यलं प्रसंगेन ॥"
रत्नावकारिका में अवग्रह का लक्षण इस प्रकार से कहा है- विषय और विषय़ी के योग से उत्पन्न हुए सत्ता मात्र गोचर दर्शन से होता है । अवान्तर अन्तर्गत सामान्याकार विशिष्ट वस्तु का प्रथम ग्रहण करना, वह अवग्रह है। विषय अर्थात् सामान्य विशेषात्मक पदार्थ और विषयी अर्थात् चक्षु आदि का है। इस उभय का अल्प मात्र भी संशय न रहे ऐसा अनुकूल सन्निपात अर्थात् योग्य देश में एक स्थान की प्राप्ति होना- उसके बाद उत्पन्न हुई सत्ता मात्र विचार दर्शन अर्थात् सर्व विषयों से पराङ्मुख होने से केवल सत्ता के लिए ही दर्शन अर्थात् बोध होना, इस बोध से उत्पन्न हुआ आद्य- प्रथम समान रूप के आकार वाली मनुष्यत्व आदि जाति से विशिष्ट वस्तु को ग्रहण करना अर्थात् ज्ञान प्राप्त करना, इसका नाम अवग्रह है ।
यहां प्रथम मत स्वीकार करने से तो दर्शन का अवकाश नहीं दिखता, और दूसरा मत स्वीकार करें तो व्यंजनावग्रह का अवकाश नजर नहीं आता । इंमलिए सत्य क्या है, यह बहुश्रुत ज्ञानी पुरुष से समझ लेना ।