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एकैकश्च प्रकारोयं द्वादशधा विभिद्यत । ज्ञानस्या ततो भेदाः स्युः षट्त्रिंशं शतत्रयम् ॥७३८ ॥
ये अट्ठाईस भेद कहे, उसके प्रत्येक के बारह - बारह उपभेद कहे हैं । इस गिनती से मति ज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद भी कहे हैं । (७३८)
तथोक्तं तत्त्वार्थ भाष्ये- " एवमेतन्मति ज्ञानं द्विविधं चतुर्विधं अष्टाविंशति विधं अष्ट षष्ट युत्तरशतविधं षट्त्रिंश त्रिशत्र विधं च भवति इति ।। "
तत्त्वार्थ भाष्य में सुद्धा मति ज्ञान दो प्रकार का, चार प्रकार का, अट्ठाईस प्रकार का, एक सौ सड़सठ प्रकार का और तीन सौ छत्तीस प्रकार का कहा है। बहुबहु विधान्यक्षिप्राक्षिप्राख्यानिश्चिततदन्याः ।
ते चैवम्
संदिग्धा संदिग्ध ध्रुवा ध्रुवाख्या मतेर्भेदाः ॥७३६॥ जो बारह उपभेद कहे हैं वह इस तरह - १ - बहु, २ - बहुविध, ३- अबहु, ४- अबहुविध, ५- क्षिप्र, ६- अक्षिप्र, ७- निश्चित, ८- अनिश्चत, - संदिग्ध, १०असंदिग्ध, ११- ध्रुव और १२ - अध्रुव हैं। (७३६)
तथाहि...... आस्फालिते तूर्य वृन्दे कश्चिद्यथैकहेलया । भेरी शब्दा इयन्तोऽथैतावन्तः शंख निःस्वनाः ।।७४० ।।
इत्थं पृथक् पृथक् गृह्णन् बहु ग्राही भवेदथ । ओघतोऽन्यस्तूर्य शब्दं गृह्णन बहुविद् भवेत् ॥ ७४१॥ (युग्म्।) दृष्टान्त रूप में अनेक बाजे बजते हों उस समय कोई मनुष्य 'इतने भेरी के शब्द हैं और इतने शंख के शब्द हैं' इस तरह अलग-अलग ग्रहण करके कहता है । यह 'बहुग्राही' ज्ञान कहलाता है । परन्तु कोई इस तरह नहीं कह सकता, परन्तु अधिकतः बाजों के शब्द ग्रहण करके इसकी संख्या कहे, वह अबहुग्राही ज्ञान कहलाता है । ( ७४०-७४१)
माधुर्यादि विविध बहु धर्म युक्तं वेत्ति यः स बहुविधवित् ।
अबहु विधवित्तु शब्दं वेच्ये कद्धयादि धर्म युतम् ॥७४२॥
तथा उन बाजों के शब्दों की मधुरता आदि नाना प्रकार के अनेक धर्मों
को जानकर मनुष्य बहुविध ग्राही कहलाता है । परन्तु उस शब्द के अमुक एक या दो ही धर्म का जानकार हो वह अबहुविध ग्राही कहलाता है । (७४२)
वेत्ति कश्चिदचिरेण चिरेणान्यो विमृश्य च ।
क्षिप्राक्षिप्रग्राहिणो तौ निर्दिष्टव्यौ यथा क्रमम् ॥७४३॥