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(२०४) इसमें भी जो व्यक्ति इन सबको तुरन्त ही समझ जाये वह क्षिप्र ग्राही कहलाता है और जो बहुत समय विचार करे तब ही समझ सकता हो वह अक्षिप्र ग्राही कहलाता है। (७४३)
लिंगापेक्षं वेत्ति कश्चिद् ध्वजेनैव सुरालयम् ।
स भवेनिश्रित ग्राही परो लिंगानपेक्षया ॥७४४॥
तथा जो व्यक्ति ध्वजा या ऐसी किसी निशानी से ही 'यह मंदिर है' इस तरह समझ सकता है वह 'निश्रित ग्राही' कहलाता है और जो ऐसी किसी भी निशानी बिना ऐसी वस्तु अथवा स्थान को पहिचान ले वह 'अनिश्रित ग्राही' कहलाता है। (७४४)
निःसंशयं यस्तु वेत्ति सोऽसंदिग्ध विदाहितः। ससंशयमस्तु वेत्ति संदिग्ध ग्राहको हि सः ॥७४५॥
और जो मनुष्य अमुक वस्तु को निः संशय अर्थात् अल्प भी संदेह बिना जानता है या समझता है वह असंदिग्ध ग्राही है और जो ससंशय अर्थात् अनिश्चय रूप में- संदेह रहे इस तरह जानता हो वह संदिग्ध ग्राही कहलाता है। (७४५)
ज्ञाते य एकदा भूयो नोपदेशमपेक्षते । ध्रुव ग्राही भवेदेष तदन्योऽध्रुव विद् भवेत् ॥७४६॥ .. .
अमुक वस्तु का एक बार ज्ञान मिलने के बाद उस विषय में पुनः पूछने की जिसको आवश्यकता नहीं रही वह ध्रुवग्राही कहलाता है और जिसे पुनः पुनः उपदेश की आवश्यकता पड़े वह अध्रुवग्राही कहलाता हैं । (७४६)
नन्वेकसमय स्थायी प्रोक्तः पाच्यैरवग्रहः । संभवन्ति कथं तत्र प्रकारा बहु तादय ॥७४७।।
यहां यह प्रश्न उठता है कि पूर्व पुरुषों ने यह अवग्रह एक समय स्थायी कहा है तो फिर इसके बहुता आदि भेद किस तरह हो सकते हैं ? (७४७)
सत्यमेतन्मतः किन्तु द्विविधोऽवग्रहः श्रुते ।। निश्चयात्क्षणिको व्यावहारिकश्चामित क्षणः ॥७४८॥ . अपेक्ष्यावग्रहं भाव्यास्ततश्च व्यावहारिकम् । भेदा यथोक्ता बहुतादयो नैश्चयिके तु न ॥७४६॥ .