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व्यंजनावग्रहे: पूर्वोदितैश्चतुर्भिरन्विताः । स्युस्तेऽष्टाविंशतिर्भेदा मति ज्ञानस्य निश्चिताः ॥७३३॥
अब मूल विषय में आते हैं- अर्थावग्रह, इहा, अवाय और धारणा को पांच इन्द्रिय और छठा मन- इन छह से गुणा करने से मति ज्ञान के चौबीस भेद होते हैं और इसमें पूर्वोक्त व्यंजनावग्रह के चार भेद मिलाने पर कुल अट्ठाईस भेद होते हैं। (७३२-७३३)
भगवती वृत्तौ तु:
षोढा श्रोत्रादि भेदे नावायश्च धारणापि च । इत्येवं द्वादश विधं मति ज्ञानमुदाहृतम् ॥७३४ ॥ द्वादशे हावग्रहयो श्चत्वारो व्यंजनस्य च । उक्ता भेदाः षोडशैते दर्शने चक्षुरादिके ॥७३५॥
श्री भगवती सूत्र की वृत्ति में तो श्रोत्र आदि पांच इन्द्रिय और छठा मन इस तरह छह लेकर प्रत्येक के अवाय और धारणा ये दो भेद करने से बारह भेद होते हैं। ये बारहभेद मति ज्ञान के कहे हैं। और चक्षु आदि दर्शन के सोलह भेद कहे हैं । वह इहा और अर्थावग्रह को लेकर बारह भेद होते हैं और व्यंजनावग्रह आदि चार भेद से कुल सोलह भेद होते हैं । (७३४-७३५)
यदाह भाष्यकारः-‘‘नाणाम् अवायधिइओ दंसण मिट्टं जहो ग्रहोहाओ ॥" अर्थात् भाष्यकार का भी कहना है कि अवाय और धारणा ये ज्ञान हैं और अवग्रह तथा इहा ये दर्शन हैं ।
नन्वष्टाविंशति विधं मति ज्ञानं यदागमे । जेगीयते तन्न कथमेवमुक्ते विरुध्यते ॥७३६॥
यहां शिष्य शंका करते हैं कि शास्त्र में तो मति ज्ञान के अट्ठाईस भेद क हैं और आप तो इस तरह कहते हो, यह तो विरोधी बात कहलाती है । (७३६) ते....... मति ज्ञान चक्षुरादि दर्शनानां मिथो भिदम् ।
अत्रोच्यते.....
अविवक्षित्वैव मतिमष्टाविंशतिधा विदुः ॥७३७॥
इस शंका का समाधान करते हैं १ मति ज्ञान और २ - चक्षु आदि दर्शन, इन दोनों के बीच भेद नहीं समझकर मति ज्ञान अट्ठाईस प्रकार का गिना है। (७३७)