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निर्णीतार्थस्य मनसा धरणं धारणा स्मृता । कालः संख्य उतासंख्यस्तस्या मान भवस्थिते ॥७१३॥ बाल्ये दृष्टं स्मरत्येव पर्यन्तेऽसंख्यजीविनः । ततः स्याद्धारणा मानमसंख्यकाल सम्मितम् ॥७१४॥
इस तरह निश्चित किए पदार्थ को अन्तकरण के विषय में धारण करना, उसका नाम धारणा है । इसका कालमान संख्यात् भी है और असंख्यात् भी है 'क्योंकि असंख्य आयुष्य वाले को बचपन के समय में देखी वस्तु अन्तकाल तक स्मृति में रहती है। इसलिए धारणा की स्थिति असंख्य काल तक रहती है । (७१३-७१४)
यथाहि सज्यते पूर्वं श्रोत्रे शब्द संहतिः । ततश्च किं चिंद श्रोषमित्यर्थावग्रहो भवेत् ॥७१५॥
इन सबके दृष्टान्त में इस तरह से कान द्वारा शब्दों का समूह ग्रहण किया जाता है और फिर मैंने कुछ सुना है, इस तरह का भान-चेतना आती है, वह अर्थावग्रह है। (७१५)
ततः स्न्यादि शब्द निष्टं माधीदि विचिन्तयेत । इयमीहा ततोऽवायो, निश्चयात्मा धृतिस्ततः ॥७१६॥
उसके बाद स्त्री आदि के शब्द की और इसमें रही मधुरता आदि की चेतना. आती है । वह 'इहा' के बाद निश्चय होता है । वह अवाय है और अन्तिम धारणा होती है । (७१६)
एवं गन्ध रस स्पर्शेष्वपि भाव्या मनीषिभिः ।
घाण जिव्हा स्पर्शनानां व्यंजनावग्रहादयः ॥७१७॥ · इसी ही तरह घ्राण-नासिका, जीभ और त्वचा भी गंध, रस व स्पर्श विषय में व्यंजनावग्रह आदि भाव आते हैं। (७१७) . व्यंजनावग्रहा भावाच्चक्षुर्मानसयोः पुनः ।
चत्वारोऽर्थावग्रहाद्या धारणान्ता भवन्ति हि ॥७१८॥
चक्षु और मन को व्यंजनावग्रह का भाव होता है । इससे इनको अर्थावग्रह से लेकर धारणा तक की चार बातें होती हैं। (७१८)
यथा प्रथमतो वृक्षे चक्षु गोचरमागते । किंचिदेतदिति ज्ञानं स्यादर्थावग्रहोह्ययम् ॥७१६॥