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वा प्राप्यन्ते इत्येवमुत्पन्न बुद्धेः अभव्यस्य अपि ग्रन्थि स्थान प्राप्तस्य तद्विभूति निमित्तमिति शेषः देवत्व नरेन्द्रत्व सो भाग्यबलादि लक्षणेन अन्येन वा प्रयोजनेन सर्वथा निर्वाण श्रद्धानरहितस्य अभव्यस्यापि कष्टानुष्ठानं किंचित् अंगीकुर्वतः अज्ञान रूपस्य श्रुत सामायिक मात्रस्य लाभो भवेत्। तस्यापि एका दशांग पाठा नु ज्ञानात् ॥ इति विशेषावश्यक सूत्र वृत्तौ ॥"
विशेषावश्यक सूत्र की वृत्ति में कहा है कि- "जिनेश्वर भगवन्त आदिकी असामान्य समृद्धि को देखकर-'धर्म के कारण इस प्रकार का आदर-सत्कार तथा देवत्व राज्य आदि प्राप्त होता है। इस तरह समझाने से ग्रन्थि के पास पहुँचा हुआ अभव्य भी देवत्व, नृपत्व, सौभाग्य, बल आदि की प्राप्ति के लिए अथवा किसी अन्य हेतु के लिए कष्टकारी अनुष्ठान करता है, परन्तु उसमें मोक्ष की श्रद्धा अल्पमात्र भी नहीं होती फिर भी अज्ञान रूप श्रुत सामायिक प्राप्त होता है क्योंकि ऐसों को भी ग्यारह अंग के पाठ की अनुज्ञा है।":
भव्या अपि बलन्तेऽत्रागत्य रागादिभिर्जिताः। केचित्कर्माणि बध्नन्ति प्राग्वद्दीर्घस्थितीनि ते ॥६१६॥
भव्य जीव भी यहां तक पहुँच जाता है परन्तु राग आदि से पराजित हो कर वापिस गिरता है, और कोई तो पूर्व के समान उत्कृष्ट स्थिति कर्मों का बंधन बांधता है । (६१६)
के चित्तत्रैव तिष्ठन्ति तत्परीणाम शालिनः। न स्थितीः कर्मणामेते वर्धयन्त्यल्पयंन्ति वा ॥६१७॥
कई तो ऐसे मन परिणाम होने के बाद वहीं स्थिर रहते हैं, न कर्म स्थिति को बढ़ाते हैं और न ही कम करते हैं। (६१७) .
चतुर्गति भवा भव्या संज्ञि पर्याप्त पंचखाः । अपार्द्ध पुद्गल परावर्तान्तर्भावि मुक्तयः ॥६१८॥ तीवधारपशु कल्पापूर्वाख्य करणेन हि ।
आविष्कृत्यं परं वीर्यं ग्रन्थिं भिन्दन्ति केचन ॥६१६॥ (युग्मं ।)
चार गति में रहे भव्य जीव तथा पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव तथा अर्ध पुद्गल परावर्तन के अन्दर जिसका मोक्ष होने वाला है, इस तरह के कई जीव अपना प्रबल वीर्य प्रकट करके तीक्ष्ण परशु-कुल्हाड़े के समान अपूर्व करण मनः परिणाम द्वारा ग्रन्थि का भेदन करते हैं। (६१८-६१६)