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अब प्रस्तुत विषय कहते हैं- दर्शन मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियों के उपशम भाव को प्राप्त करता है । उपशम श्रेणि में भी अन्तिम श्रेणि पर्यन्त तक प्राणियों को यह उपशम समकित होता है । (६३५)
तथा....... यथोषध विशेषेण जनैर्मदन कोद्रवाः । त्रिधा क्रियन्ते शुद्धार्धविशुद्धाशुद्ध भेदतः ॥ ६३६॥ तथाने नौ पशमिक सम्यक्त्वेन पटीयसा ।
शोध्य क्रियते त्रेधा मिथ्यात्व मोहनीयकम् ॥६३७॥ युग्मं । .. तथा जैसे कोर ऐसी औषध द्वारा मनुष्य कोदरा (हलका अनाज) को १- शुद्ध, २- आधा शुद्ध और ३- अशुद्ध- इस तरह तीन विभागों में ढेर करता है । . वैसे इस तरह उत्तम उपशम सम्यकत्व से शोधन कर मिथ्यात्व मोहनीय के तीन प्रकार होते हैं । (६३६-६३७)
तत्राशुद्धस्य पुंजस्योदये मिथ्यात्ववान् भवेत् । पुंजस्यार्धविशुद्धस्योदये भवति • मिश्रग् ॥ ६३८॥ उदये शुद्धपुंजस्य क्षायोपशमिकं भवेत् । मिथ्यात्वस्योदितस्यान्तादन्यस्योपशमाच्च तत् ॥६३६ ॥
वह इस तरह-अशुद्ध पुंज (समूह) उदय में होता है तो जीव मिथ्यात्वी होता है, आधा शुद्ध पुंज उदय में होता है तो वह मिश्र दृष्टि होता है और शुद्ध पुंज का उदय हो तो क्षायोपशमिक सम्यकत्व वाला होता है और यह समकित उदय में आये मिथ्यात्व के अन्त से और अनुदित मिथ्यात्व के उपशम से होता है । (६३८-६३६)
आरब्धक्षप श्रेणे: प्रक्षीणे सप्तके भवेत् ।
क्षायिकं तद्भव सिद्धेस्त्रि चतुर्जन्मनोऽथवा ॥ ६४० ॥
दर्शन मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियां क्षीण होती हैं तब आरंभी होता हैक्षपक श्रेणि जो तद् जन्म मोक्षगामी जीव हो अथवा तीन चार जन्म होने के बाद मोक्ष में जाने वाला हो, ऐसे प्राणियों को क्षायिक सम्यकत्व होता है । (६४०)
तत्त्वार्थ भाष्ये चैतेषां स्वरूपमेवमुक्तम्- "क्षायादि त्रिविधं सम्यग्दर्शनम् तदावरणीयस्य कर्मणो दर्शन मोहस्य च क्षयादिभ्य इति ॥" अस्य वृत्तिः
तत्त्वार्थ भाष्य में इसका स्वरूप इस तरह कहते हैं- 'क्षय आदि तीन