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(१६०) लभेत देश विरतिं क्षपितेषु ततोऽपि च । संख्येयेषु सागरेषु चारित्रं लभतेऽसुभान् ॥६८४॥ (युग्मं।)
कर्मों की इतनी स्थिति खत्म करने के बाद प्राणी ने समकित प्राप्त किया. फिर इससे पृथकत्व पल्योपम जितनी स्थिति कम हुई हो वह श्रावक रूप देश विरति प्राप्त करता है और इसमें से भी संख्यात् सागरोपम कम होने पर सर्व विरति अर्थात् चारित्र प्राप्त करता है । (६८३-६८४) ..
एवं चोपशम श्रेणिं क्षपक श्रेणिमप्यथ । क्रमात्संख्येय पाथोधिस्थिति ह्यसादवाप्नुयात् ॥६८५॥... एतानभ्रष्ट सम्यकत्वोऽन्यान्यदेवनृजन्मसु । । लभेततान्यतर श्रेणि वर्जान कोऽप्येक जन्मनि ॥६८६॥ ..
इसमें से भी संख्यात् सागरोपम के जितनी स्थिति कम हो तब प्राणी अनुक्रम से उपश्रेणि और क्षपक श्रेणि में पहुँचता है । यदि प्राणी का समकित भ्रष्ट न हुआ हो तो वह प्राणी तो, अन्य देव और मनुष्य के जन्मो में यह सब भाव प्राप्त करता है और कोई जीव एक जन्म में भी दो श्रेणियों में से एक को छोड़ शेष सब भाव प्राप्त करता है। क्योंकि सिद्धान्त के मतानुसार एक जन्म में दो श्रेणि नहीं होती हैं । (६८५-६८६)
श्रेणि द्वयं चैकभवे सिद्धान्ताभिप्रायेणं नस्यादेव ॥आहुश्च॥ सम्मत्तंमि उ लद्धे पलि अपुहत्तेण सावओ हुजा। चरणोवसमखयाणं सागर संखंतरा हुंति ॥१॥
इस सम्बन्ध में ऐसा वचन है कि समकित प्राप्त करने के बाद पृथकत्व पल्योपम जितनी स्थिति कम होती है तब प्राणी श्रावक अर्थात् देश विरति प्राप्त करता है और उसमें से चारित्र अनुक्रम से उपशम श्रेणि और क्षपक श्रेणि प्राप्त करता है । इस अनुक्रम से संख्यात् सागरोपम की स्थिति कम होती है तब सर्व विरति प्राप्त करता है । (१)
एवं अप्परिवडिए सम्मत्ते देवमणु अजम्मेसु । अन्नयर सेढिवज एग भवेणं च सव्वाइ ॥६८७॥
इति महाभाष्य सूत्र वृत्त्यादिषु ॥