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(१८५) अर्धशुद्धा अशुद्धाश्च मिश्र मिथ्यात्व संज्ञकाः । एवं कोद्रवदृष्टान्तात् त्रिषु पुंजेषु सत्स्वपि ॥६५१॥ यदा निवृत्ति करणात् सम्यकत्वमेव गच्छति । मिश्र मिथ्यात्व पुंजौ तु तदा जीवो न गच्छति ॥६५२॥
तथा इस तरह आधा शुद्ध हुए को मिश्र और सर्वथा अशुद्ध रहे को मिथ्यात्व नाम से जाना जाता है । इसी तरह कोद्रव के दृष्टान्त के अनुसार यहां शुद्ध, अर्ध शुद्ध और अशुद्ध- इस प्रकार तीन भेद होते हैं। जब अनिवृत्ति करण से जीव सम्यकत्व प्राप्त करता है तब वह मिश्र और मिथ्यात्व इन दो से प्राप्त नहीं करता है । (६५१-६५२),
पुनः पतित सम्यकत्वो यदा सम्यकत्वश्नुते । तदाप्यपूर्व करणेनैव पुंजत्रयं सृजन् ॥६५३।। करणेनानिवृत्ताख्ये नैव प्राप्नोति पूर्ववत् । नन्वत्रापूर्व करणे प्राग्लब्धेऽन्यर्थता कथम् ॥६५४॥ (युग्मं।)
और एक बार सम्यकत्व प्राप्त कर भ्रष्ट होने के बाद फिर उसे प्राप्त हो, तब भी जीव अपूर्व करण से ही तीन पुंज (ढेर) भेद (पार) करके अनिवृत्त करण द्वारा ही पूर्व के समान वह सम्यकत्व प्राप्त करता है । यहां ऐसी शंका करते हैं कि-'अपूर्व करण तो पूर्व में हो गया था तो फिर दूसरी बार अपूर्व करण का क्या लाभ है ? (६५३-६५४)
अत्रोच्यते.....अपूर्ववदपूर्वं स्यात् स्तोक वारोपलम्भतः। .. अपूर्वत्व व्यपदेशो भवेल्लोकेऽपि दुर्लभे ॥६५५॥
यहां शंका का निवारण करते हैं- अपूर्व करण अल्प समय को मिलता है इससे यह अपूर्व कहलाता है, इस जगत में दुर्लभ वस्तु 'अपूर्व' नाम से पहचानी जाती है। यह कारण है । (६५५)
. इदमर्थतो विशेषावश्यक वृत्तौ ॥ सम्यग्दृष्टि व्यपदेश निबन्धनमितीरितम् ।। सम्यकत्वं त्रिविधं शुद्ध श्रद्धां रूपं मनीषिभिः ॥६५६॥
इसका भावार्थ विशेषावश्यक सूत्र की वृत्ति में कहा है- जिस तरह सम्यक दृष्टि के नामक, निबन्ध रूप और शुद्ध श्रद्धारूप हैं उसी तरह सम्यकत्व के तीन भेद बुद्धिमानों ने कहे हैं। (६५६)