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प्रकार का सम्यकत्व है। यह इसके आवरण कर्म के क्षय आदि से तथा दर्शन मोहनीय के क्षय आदि से होता है।' इसका विवेचन इस तरह:
"मत्याद्यावरणीय दर्शनमोहसप्त कक्षयात् उपजातं क्षय सम्यग् दर्शनमभिधीयते । तेषामेवोपशमाज्जातं उपशम सम्यग् दर्शनमुच्यते । तेषामेव क्षयोपशमाभ्यां जातं क्षयोपशम सम्यग् दर्शनमिदधति प्रवचनाभि साः ॥ "
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जहां तक मिथ्यात्व हो वहां तक मति ज्ञानादि भी नहीं होता है, मति अज्ञानादि होता है । इससे दर्शन मोहनीय कर्म को मति आदि ज्ञान का आवरण भी कहा है। मति आदि का आवरण दर्शन मोहनीय कर्म की सात प्रकृति के क्षय से उत्पन्न होता है । यह क्षायिक सम्यग् दर्शन है । जो इनके उपशम से होता है वह उपशम सम्यक् दर्शन है और जिसमें इसके क्षय और उपशम ये दोनों होते हैं वह क्षयोपशम सम्यग् दर्शन कहलाता है । यह तत्त्वार्थ के प्रथम अध्ययन में कहा है । तत्त्वश्रद्धान जनकं क्षयोपशमिकं यदि । सम्यकत्वस्य क्षायिकस्य कथमावारकं तदा ॥ ६४१ ॥ यदि मिथ्यात्व जातीय तया तदपवारकम् । तदात्मधर्म श्रद्धानं कथमस्मात् प्रवत्तेते ||६४२॥
ननु च
यहां कोई शंका करता है कि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व जब तत्त्व श्रद्धा को उत्पन्न करने वाला है तब क्षायिकं सम्यकत्व को यह क्यों रोकता है ? यदि आप ऐसा कहोगे कि - यह एक जात का मिथ्यात्व होने से इसे रोकता है तो इससे आत्म धर्म रूप तत्त्व श्रद्धा कैसे प्रकट होती है ? ( ६४१-६४२ )
अत्रोच्यते ...... . यथाश्लक्ष्णाभ्र कान्तः स्था दीपादेद्यतते द्युतिः । तस्मिन् दूरी कृते सर्वात्मना संजृम्भते ऽधिकम् ॥६४३॥ यथा वा मलिनं वस्त्रं भवत्या वारकं मणेः । निर्णिज्योज्वलिते तस्मिन् भाति काचन तत्प्रभा ॥६४४॥ मूलाद्दूरी कृते चास्मिन् सा स्फूटा स्यात्स्वरूपतः । मिथ्यात्व पुद् गलेष्वेवं रसापवर्त्तनादिभिः ॥६४५॥
. क्षायोपशमिकत्वं द्राक् प्राप्तेषु प्रकटी भवेत् । आत्माधर्मात्मकं तत्त्व श्रद्धानं किंचिदस्फूटम् ॥६४६॥ युग्मं ।
यहां शंका का समाधान करते हैं कि जिस तरह बहुत सूक्ष्म अभ्रक के अन्दर रही दीपक की कान्ति चमकती है और अभ्रक दूर करने से और विशेष