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भी अन्तर करण को प्राप्त कर स्वयमेव नष्ट हो जाता है। उसी समय में प्राणी औपशमिक सम्यकत्व प्राप्त करता है । (६३२-६३३) . अत्रायमौपशमिक सम्यकत्वेन सहाप्नुयात् ।
देशतो विरतिं सर्व विरतिं वापि कश्चन् ॥६३४॥
तथा यहां कोई प्राणी इस औपशमिक सम्यकत्व की प्राप्ति के साथ-साथ विरति रूप और कोई सर्व विरति रूप भी प्राप्त करता है । (६३४)
तथोक्तं शतक चूर्णो- "उव सम सम्मदिदी अन्तर करणे ठिओ कोड देस विरइयं पि लभेइ कोइ पमत्त अपमत्त भावं पि। सासायणो पुण न किंपि लभे इत्ति ॥" . ... शतक. चूर्णि में कहा है कि- 'कोई उपशम सम्यकत्ववान् जीव अन्तर करण में स्थिर होकर देश विरति को प्राप्त करता है और कोई कभी प्रमत्त-अप्रमत्त भाव को भी प्राप्त करता है और किसी को केवल सास्वादन सम्यकत्व भी नहीं प्राप्त होता है।'
कर्म प्रकृति वृत्तावपि इत्यर्थतः॥ किंच... बद्धयते त्यक्त सम्यकत्वैरुत्कृष्टा कर्मणां स्थितिः।
भिन्न ग्रन्थिमिरप्युग्रो नानु भागस्तु तादृशः ॥१॥
- इत्येतत्कार्मग्रन्थिकमतम् ॥ .' कर्म प्रकृति की वृत्ति में भी यही अर्थ कहा है। तथा सम्यकत्व को छोड़कर बैठा, ग्रन्थि भेद करके रहने वाला प्राणी भी कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बंधन करता है परन्तु कोई उग्र अनुभाग नहीं बंधन करता है। (१) ... कर्म ग्रन्थकार का भी यह अभिप्राय है।
भवेद्भिन्नग्रन्थिकस्य मिथ्यादृष्टेरपि स्फूटम् । ... सैद्धान्तिकमते ज्येष्टः स्थिति बन्धो न कर्मणाम् ॥२॥
सिद्धान्त वादियों का ऐसा मत है कि- जिसने ग्रन्थि भेद किया हो वह मिथ्या दृष्टि हो फिर भी प्रकट रूप में कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का बन्धन नहीं होता है । (२) .
अथ प्रकृतम्इदं चोपशम श्रेण्यामपि दर्शन सप्तके। उपशान्ते भवेच्छे णि पर्यन्तावधि देहिनाम् ॥६३५॥