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सम्यकत्वमौपशमिकं ग्रन्थिं भित्वाश्रुतेऽसुमान् । महानंद भट इव जित दुर्जय शात्रवः ॥६२७॥
दुर्जय शत्रु का पराभव करके जैसे कोई सुभट हर्ष प्राप्त करता है, वैसे ही ग्रन्थि का भेदन करके प्राणी औपशमिक सम्यकत्व का महान आनंद प्राप्त करता है । (६२७) तच्चैवम्....... अथा निवृत्ति करणेनाति स्वच्छाशयात्मना ।
करोत्यन्तर करणमन्त मुहूर्त सम्मितम् ॥६२८॥ वह इस तरह से-प्राणी आरंभ में निर्मल आशय रूप अनिवृत्ति करण द्वारा अन्तर्मुहूर्त के प्रमाण वाला अन्तर करण करता है । (६२८)
कृते च तस्मिन्मिथ्यात्व मोह स्थितिर्द्विधाभवेत्। तत्राद्यान्तर करणादधस्तन्य परोवंगा ॥६२६॥
उसके बाद दो प्रकार की मिथ्यात्व मोहनीय कर्म की स्थिति होती है। उसमें पहली अन्तर करण से नीचे और दूसरी उससे ऊपर की स्थिति रहती है । (६२६)
तत्राद्यायां स्थितौ मिथ्यादृक् स तद्दल वेदनात् । अतीतायामथै तस्यां स्थितावन्तर्मुहूर्ततः ॥६३०॥ प्राप्नोत्यन्तर करणं तस्याद्यक्षण एव सः ।
सम्यकत्वमौपशमिकम् पौदगलिकमाप्नुयात् ॥६३१॥ युग्मं।
उसमें भी थम स्थिति में रहने वाला जीव मिथ्यादृष्टि होता है, क्योंकि वह मिथ्यात्व के समूह को भेदन करता है और फिर अन्तर्मुहूर्त बाद यह स्थिति अतीत होने के बाद अन्तर करण को प्राप्त करता है और इसके प्रथम क्षण में ही अपुद्गलिक औपशमिक सम्यकत्व प्राप्त करता है । (६३०-६३१)
यथा वनवो दग्धेन्धनः प्राप्यातृणं स्थलम् । स्वयं विध्यायति तथा मिथ्यात्वोग्र दवानलः ॥६३२॥ अवाप्यान्तरकरणं क्षिप्रं विध्यायति स्वयम् । तदौपशमिकं नाम सम्यकत्वं लभतेऽसुमान् ॥६३३॥ (युग्मं।)
जिस तरह दावानल ईन्धन को जला देता है, फिर तृण-घास रहित स्थान पर पहुँच कर अपने आप शान्त हो जाता है, उसी तरह मिथ्यात्व रूपी भयंकर दावानल