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जबकि अभव्य जीव में एक पहला ही करण होता है । (६०३)
आद्येन करणेनांगी करोतिकर्म लाघवम् । धान्यपत्यगिरि सरिद् दृषदादि निदर्शनेः ||६०४॥
प्रथम प्रकार का मनः परिणाम हो तो प्राणी के कर्म अनाज के प्याले के दृष्टान्त से अथवा पर्वत-नदी - पाषाण न्याय से लघु-लघु होते जाते हैं । (६०४) यथा धान्यं भूरि-भूरि कश्चिद् गृह्णांति पल्यतः । क्षिपत्यत्राल्पमल्पं व कालेन कियताप्यथ ॥ ६०५ ॥
धान्यपल्यः सोऽल्प धान्यशेष एवावतिष्ठते । एवं बहूनि कर्माणि जरयन्नसुमानपि ॥ ६०६॥ वांश्चाल्पाल्पानि तानि कालेन कियतापि हि । स्यादल्प कर्माना भोगात्मकाद्य करणेन सः ॥६०७॥ .
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विशेषकं -1
जैसे कोई मनुष्य एक अनाज के ढेर में से बहुत लेता है और थोड़ा वापिस डालता जाता है, इससे कुछ काल में यह अनाज का ढेर प्राय: अल्प हो जाता है. उसी तरह प्राणी के कर्म भी अधिक छोड़ते और अल्पबंधन करते, आखिर में अनाभोग रूपी पहले भेद के मन: परिणाम से लघु होते जाते हैं - क्षीण होते जाते हैं । (६०५ से ६०७ )
यथा प्रवृत्त करणं नन्वनाभोंग रूपकं ।
भवत्यना भोगतश्च कथं कर्मक्षयोऽङ्गिनाम् ॥ ६०८ ॥
यहां कोई ऐसी शंका करते हैं कि- जब यथा प्रवृत्त करण तो अनाभोग रूप है तो इससे प्राणियों के कर्मों का किस तरह क्षय होता है ? ( ६०८ ) अत्रोच्यते...... यथामिथो घर्षणेन ग्रावाणोऽद्रिनदीगताः । स्युचित्रा कृतयो ज्ञान शून्या अपि स्वभावतः ॥६०६॥ तथा यथा प्रवृत्तात्स्युरप्यनाभोग लक्षणात् । लघुस्थितिक कर्माणो जन्तवो ऽत्रान्तरेऽथ च ॥६१०॥ युग्मं ।
इसका समाधान करते हैं कि- स्वभाव से भाव शून्य होने पर भी पर्वत
नदी के पाषाण (पत्थर) एक दूसरे के घर्षण द्वारा नाना प्रकार की आकृतियां धारण करते हैं वैसे ही अनाभोग लक्षण वाले यथा प्रवृत्त करण (जैसी प्रवृत्ति