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अब पच्चीसवें द्वार में दृष्टि के विषय में कहते हैं - श्री जिनेश्वर भगवंत के वचन के अनुसार ही, उनसे जरा भी विपरीत नहीं, वर्तन-आचरण करना; उसका नाम सम्यक् दृष्टि हैं। यह सम्यक् दृष्टि सम्यकत्व धारी प्राणियों को होती है और यह सम्यकत्व किस तरह होता है- वह आगे समझाया है । (५६७)
चतुर्गतिक संसारे पर्यटन्ति शरीरिणः । वशीकृता विपाकेन गुरु स्थितिक कर्मणाम् ॥५६८॥ अर्थतेषु कश्चिदंगी कर्माणि निखिलान्यपि । कुर्याद्यथा प्रवृत्ताख्य करणेन स्वभावतः ॥५६६॥ पल्यासंख्य लवोनैक कोटयब्धिस्थितिकानि वै ।
परिणाम विशेषोऽत्रं करणं प्राणिनां मतम् ॥६००॥ युग्मम् । ___ इस चार गति वाले संसार में जीवात्मा उग्र कर्म विपाक के वश होकर चिरकाल तक परिभ्रमण किया करता है। इसमें कोई जीव स्वभाव से यथाप्रवृत्त नामक करण के द्वारा सर्व कर्मों को एक कोटा कोटी सगरोपम पल्योपम के असंख्य भाग से कुछ कम स्थिति वाला करता है। यहां करण अर्थात् प्राणी के मन के परिणाम समझना । (५६८-६००) .
तंत्रिधा तत्र चाद्यं स्याद्यथाप्रवृत्त नामकम् ।
अपूर्वकरणं नामानिवृत्तिकरणं तथा ॥६०१॥ - वह करण तीन प्रकार का होता है- १- यथाप्रवृत्त, २- अपूर्वकरण और ३- अनिवृत्तिकरण । (६०१) ..
वक्ष्यमाण ग्रन्थि देशावधि प्रथममीरितम् । ... द्वितीयं भिद्यमानेऽस्मिन् भिन्ने ग्रन्थौ तृतीयकम् ॥६०२॥
इन तीन प्रकार में से प्रथम ग्रन्थिदेश तक होता है, दूसरा जब ग्रन्थि भेदन होते हैं उस समय होता है और तीसरा ग्रन्थि के भेदन होने के बाद में होता है।
(६०२)
ग्रन्थि भेद क्या है वह आगे कहते हैं - त्रीण्यप्यमूनि भव्यानां करणानि यथोचितम् । सम्भवन्त्येक मेवाद्यभव्यानां तु सम्भवेत् ॥६०३॥ भव्य जीवों में ये तीनों करण अर्थात् मनः परिणाम यथोचित संभव होते हैं