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चाहिए वैसी प्रवृत्ति करने) से प्राणी के कर्म लघु-हलके होते हैं- पतले होते हैं। (६०६-६१०)
रागद्वेष परिणाम रूपोऽस्ति ग्रन्थिरुत्कटः। दुर्भेदो दृढकाष्ठादि ग्रन्थिवद् गाढ चिक्कण: ॥६११॥
फिर भी उसके बाद बीच में राग द्वेष के परिणाम रूप एक कठिन ग्रन्थि (गांठ) आती है, वह दुर्भेद्य है तथा दृढ़ लकड़ी आदि की गांठ के समान अति चिकनी होती है । (६११)
मिथ्यात्वं नौ कषायाश्च कषायाश्चेति कीर्तितः । जिनै श्चतुर्दशविधोऽभ्यन्तर ग्रन्थिरागमे ॥
एक मिथ्यात्व, नौ कषाय तथा चार मूल कषाय- इस तरह चौदह प्रकार की अभ्यंतर ग्रन्थि जिनेश्चर देव ने आगम में कही हैं।
प्रागुक्त रूप पस्थितिक कर्माणः केऽपि देहिनः। यथा प्रवृत्त करणाद् ग्रन्थेरभ्यर्णमिथति ॥६१२॥ एतावच्च प्राप्त पूर्वा अभव्या अप्यनन्तराः ।
न त्वीशन्ते . ग्रन्थिमेनमेते भेत्तुं कदापि हि ॥६१३॥ . इस ग्रन्थि के पास पूर्वोक्त स्थिति के कर्म वाले कई जीवात्मा यथा प्रवृत्त
मनः परिणाम के द्वारा आते हैं तथा अभव्य जीव भी वहां अनन्त बार आते हैं परन्तु .. कोई अभव्य जीव इस ग्रन्थि का भेदन नहीं कर सकता है । (६१२-६१३)
श्रत सामायिकस्य स्याल्लाभः केषांचिदत्र च ।
शेषाणां सामायिकानां लाभस्तेषां न सम्भवेत् ॥६१४॥ ... वहां किसी को श्रुत सामायिक की प्राप्ति होती है और शेष को सामायिक का लाभ नहीं होता है । (६१४) तथोक्तम्..... तित्थं कराइ पूअं दगुणाणेण वा वि कजेण ।
सुअ सामाइ लाभो होइ अभव्यस्स गंठिभि ॥६१५॥ इस विषय पर आगम में कहा है कि ग्रन्थि भेद तक पहुँचे अभव्य जीव को तीर्थंकर आदि की पूजा होती देखकर तथा किसी अन्य कारण से श्रुत सामायिक का लाभ होता है । (६१५)
"अहंदादिविभूतिं अतिशयवतीं दृष्टा धर्मादेवं विधः सत्कारः देवत्वराज्यादयः