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नाममालायामपि "बुद्धीन्द्रियं स्पर्शनादि पाण्यादि तु क्रियेन्द्रियम् । इति अभिहितम् इति इन्द्रियाणि ॥२२॥
नामा माला में भी कहा है कि - 'स्पर्श इन्द्रिय आदि बुद्धि इन्द्रिय हैं और हाथ पैर आदि क्रिया इन्द्रिय हैं ।' इस तरह बाईसवां द्वार जो इन्द्रिय है, उसका स्वरूप सम्पूर्ण हुआ।
संज्ञा येषां सन्ति ते स्युः संज्ञिनोऽन्येत्वसंज्ञिनः ।। संज्ञिनस्ते च पंचाक्षा मनः पर्याप्ति शालिनः ॥५८०॥
अब 'संज्ञित' नामक तेइसवें द्वार के विषय में कहते हैं- जिसको संज्ञा है वह संज्ञित-संज्ञी (संज्ञा वाला) कहलाता है और शेष सर्व असंज्ञी कहलाते हैं। मन पर्याप्ति और पांच इन्द्रिय- इन छ: का सद्भाव, इसका नाम संज्ञा है! इसलिए ये छः बात जिसमें हों वही संज्ञी कहलाता है' । (५८०)
ननु संमूञ्छिम पंचाक्षान्तेष्वेकेन्द्रियादिषु ।
आहाराद्याः संन्ति संज्ञास्ततस्ते किं न संज्ञिनः ॥५८१॥
यहां कोई प्रश्न करते हैं कि- एकेन्द्रिय आदि से संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तक के जीवों को आहार आदि संज्ञा तो होती है, तब वह भी संज्ञी कहलाना चाहिये। फिर
भी क्यों नहीं कहलाता है ?.(५८१) . अत्रोच्यते-- ओघरूपा दशाप्येतास्तीव्र मोहोदयेन च । .:: अशोभना अव्यक्ताश्चतन्नाभिः संज्ञिता मताः ॥५८२॥
- इसका उत्तर देते हैं कि-जिसकी ये दस संज्ञाए ओघरूप हैं और तीव्र मोह के उदय के कारण अशोभन और अव्यक्त हैं, ऐसी संज्ञाओं को संज्ञा नहीं माना है, अतः उसको संज्ञी में नहीं गिना जाता है । (५८२)
निद्रा व्याप्तोऽसुमान कंडूयनादि कुरुते यथा । मोहाच्छादित चैतन्यास्तथाहाराद्यमी अपि ॥५८३॥ संज्ञा सम्बन्ध मात्रेण न संज्ञित्वमुरीकृतम् । न ह्ये के नैव निष्केण धनवानुच्यते जनैः ॥५८४॥ अताद ग्रूप युक्तोऽपि रूपवान्नाभिधीयते । धनी किन्तु बहुद्रव्यै रूपवान् रम्य रूपतः ॥५८५॥