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(१७०) मनोद्रव्य के आवलम्बन से मन के जो परिणाम आते हैं उन्हें भावमन कहा है । ऐसा पूर्वाचार्यों ने भी ऐसा ही कहा है । (५७६)
"जीवो पुण मण परिणाम किरियावंतो भावमणो ॥ कि भणियं होंई मण द्रव्वालंबणो जीवस्स भणण वावारो भावमणो भन्नइ । इति नन्द्यध्यनन चूर्णी ॥"
'जीव का क्रियावंत मन परिणाम है, भावमन है । वह कैसा होता है ? जीव के मनद्रव्य के अवलंबन वाला मनन रूप व्यापार - वह भाव मन कहलाता है। नंदी अध्ययन चूर्ण में यह कहा है।'
.. अत एव च - द्रव्यचित्तं विना भावचित्तं न स्याद संजिवत्।।
विनापि भाव चित्तं तु द्रव्यतो जिनवद्भवेत् ॥५७७॥ असंज्ञी के समान द्रव्यचित्त के बिना भावचित्त होता है परन्तु जिनेश्वर भगवन्त के समान भाव मन बिना द्रव्य चित्त (मन) तो होता ही है। (५७७)
तथोक्तं प्रज्ञापना वृत्तौ- भावमनो विनापि च द्रव्ययनो भवति यथा भवस्थ : केवलिनः । इति॥
पन्नावणा सूत्र की वृत्ति में भी कहा है कि भवस्थ केंवली के समान भावमन बिना भी द्रव्यमन होता है।
स्तोका मनस्थिनोऽसंख्य गुणाः श्रोत्रान्वितास्ततः । चक्षुर्घाणरस संज्ञाढ्याः स्यु क्रमेणाधिकाधिकाः ॥५७८॥ अनिन्द्रियाश्च निर्दिष्टा एभ्योऽनन्त गुणाधिकाः ।। स्पर्शनेन्द्रियवन्तस्तु तेभ्योऽनन्त गुणाधिकाः ॥५७६॥
अब उन इन्द्रिय वालों की संख्या कितनी है ? वह कहते हैं- मन इन्द्रिय वाले सबसे अल्प हैं, इससे असंख्य गुणा कर्ण इन्द्रिय वाले हैं । इससे चक्षु इन्द्रिय वाले, घ्राण इन्द्रिय वाले और रसेन्द्रिय वाले अनुक्रम से अधिक से अधिक हैं। इससे भी अनन्तगुण अनिंद्रिय-इन्द्रिय रहित सिद्ध के जीव हैं और इससे अनन्त गुणा स्पर्शेन्द्रिय वाले जीव हैं । (५७८-५७६)
लोकैश्च- "चक्षु श्रोत्र घ्राणरसनत्वक्मनोवाक्पाणिपाद पायूपस्थलक्षणानि एकादश इन्द्रियाणि सुश्रुतादौ उक्तानि।" ।
तथा लोकों में तो कहा है- 'चक्षु , कर्ण, नासिका, जीभ, त्वचा, मन, वाणी हाथ, पैर, गुदा और लिंग- इस तरह से ग्यारह इन्द्रिय सुश्रुत आदि कही गई हैं।'