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यथा शरावकं नव्यं नैवके नोद बिन्दुना । क्लिद्यते किन्तु भूयोभिः पतद्भिस्तैर्निरन्तरम् ॥५१०॥ एवं सुप्तोऽपि नैकेन शब्देन प्रतिबुध्यते । किन्तु तैः पंचषैः कर्णे शब्द द्रव्यैर्भूते सति ॥५११॥ .
जिस तरह मृत्तिका का एक नया कोरा पात्र हो वह जल के एक बिन्दु से भीगा नहीं हो सकता है, परन्तु इसके ऊपर बहुत जल गिराने से ही भीग सकता है तथा जैसे सोये मनुष्य को जागृत करने के लिए एक शब्द पर्याप्त नहीं होता परन्तु इसके कान के विषय में पांच - छह अर्थात् कई बार शब्द उच्चारण करने से ही जागता है । (५१०-५११) .
एवं व्यंजनावग्रह भावना नन्दी सूत्रे ॥ चतुस्त्व प्राप्त कारित्वादंगलं संख्य भागतः । अर्थ जघन्याद् गृह्णाति ततोऽप्यवक्तिरं न तु ॥५१२॥ तत एवाति पार्श्वस्थं नैवांजनमलादिकम् । चक्षुः परिच्छिनत्तीति प्रतीतं सर्व देहिनाम् ॥५१३॥
व्यंजनावग्रह इस तरह ही ज्ञात होता है वह नंदी सूत्र में भी कहा है। अब चक्षु इन्द्रिय के सम्बन्ध में कहना है कि इसे अप्राप्त पदार्थ की जानकारी है। इससे यह जघन्यतः अंगुल के. असंख्यातवें विभाग जितनी दूर से पदार्थ को ग्रहण करता है, इससे अधिक नजदीक के किसी पदार्थ को ग्रहण नहीं कर सकता है । उदाहरण के तौर पर देखो कि अत्यंत नजदीक रहे अंजन अथवा मैल आदि को यह चक्षु देख नहीं सकती । यह हम सब जानते हैं । (५१२-५१३)
तथा- श्रुतिर्वादश योजन्याः शृणोति शब्दमागतम् । रूपं पश्यति चक्षुः साधिकंयोजन लक्षतः ॥५१४॥
तथा उत्कृष्ट रूप में श्रोत्र इन्द्रिय बारह योजन दूर से आये शब्द को सुनती है, जबकि चक्षु तो एक लाख योजन से कुछ अधिक दूर रहे पदार्थ का स्वरूप भी देख सकती है । (५१४)
आगतं नव योजन्याः शेषाणि त्रीणि गृह्णते ।। गन्धं रसमथ स्पर्शमुत्कृष्टो विषयो ह्ययम् ॥५१५॥
शेष तीन इन्द्रिय नासिका, जीभ और स्पर्शेन्द्रिय उत्कृष्टतः नौ योजन दूर से आयी गंध, रस और स्पर्श के विषय में ग्रहण करती हैं। (५१५)