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ननु च प्राप्त कारीणि श्रोतादीनीन्द्रिय याणि चेत । परतोऽप्यागतान् शब्दादीन् गृह्णान्ति कथं न तत् ॥५१६॥ द्वादशयोजनादिर्यो नियमः सोऽपि निष्फलः । गृह्णति प्राप्त सम्बन्धं सर्वमित्येव यौक्तिकम् ॥५१७॥
यहां कोई शंका करता है कि- जब कर्ण आदि इन्द्रिय प्राप्त पदार्थ को ग्रहण करने वाली है तब वह इससे भी दूर से आए शब्द आदि विषयों को क्यों नहीं ग्रहण करता है ? उसके लिए बारह योजन का नियम कहा है, वह भी निष्फल है । इसके लिए तो यह कहना युक्त है कि इन्हें जितना जैसा सम्बन्ध प्राप्त होता है, उन सब को ग्रहण करता है । (५१६-५१७)
अत्रोच्यते- शब्दादीनां पुद्गला ये परतः स्युः समागताः। : . तथा मन्द परिणामास्ते जायन्ते स्वभावतः ॥५१८॥ यथा स्वविषयं ज्ञानं नो.त्पादयितुमीशते । स्वभावान्नास्ति शक्तिश्चेन्द्रियणामपि तद्ग्रहे ॥५१६॥ (युग्मं।) ततो विषय नियमो युक्तोऽयं दर्शितः श्रुते । प्राप्य कारित्वे चतुर्णामिन्द्रियाणां स्थितेऽपि हि ॥५२०॥ ..
इस शंका का निवारण करते हैं कि शब्द आदि के पुद्गल जो दूर से आते हैं उनके स्वभाविक रूप में परिणाम इतने मंद हो जाते हैं कि इससे इसके विषय का ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, स्वभावतः इन्द्रियों में भी इसको ग्रहण करने की शक्ति नहीं होती है। इसलिए इन चार इन्द्रियों में प्राप्त पदार्थ को ग्रहण करने का गुण होने पर भी इसके विषय परत्व में जो यह नियम शास्त्र में कहा है वह युक्ति युक्त ही है। (५१८-५२०)
किं च - नास्ति शक्तिश्चक्षुषोऽपि विषयात्परतः स्थितम् । परिच्छे तु द्रव्यजातं युक्तस्तस्याप्यसौ ततः ॥५२१॥
और चक्षु में भी अपने विषय से अन्य एक भी पदार्थ को बताने की शक्ति नहीं होती, अतः इसका परत्व का नियम भी युक्त ही है । (५२१)
जिह्वा घ्राण स्पर्शनानि त्रीण्यप्येतानि गृह्णते । . बद्ध स्पृष्टं द्रव्यजातं स्पृष्टमेव परं श्रुतिः ॥५२२॥
जीभ, घ्राण (नाक) और स्पर्श- ये तीनों इन्द्रिय बद्धस्पृष्टा पदार्थ को ग्रहण करती हैं । कर्ण केवल स्पष्ट पदार्थ को ग्रहण करते हैं । (५२२)