________________
(१५६)
यदुक्तम्- पुटुं सुणेइ सई रूवं पुण पासइ अपुटुं तु ।
· गंधं रस च फासं च बद्ध पुढे वियागरे ॥५२३॥ कहा है कि-शब्द सुना जाता है वह स्पर्श होने से, रूप दिखता है वह स्पर्श बिना होता है। और गंध रस तथा स्पर्श का अनुभव होता है वह बद्ध स्पष्टता के कारण से होता है । (५२३)
बद्ध तत्रात्म प्रदेशैरात्मीकृ तमिहोच्यते ।। स्पृष्ट मालिंगित मात्रं ज्ञेयं वपुषि रेणुवत् ॥५२४॥
बद्ध का अर्थ होता है आत्म प्रदेश से आत्मरूप करना वह 'बद्ध' कहलाता है, स्पृष्टा अर्थात् शरीर पर केवल रज़ के समान चिपट जाना वह बद्ध स्पृष्ट है । (५२४) __ "बद्धमप्पी कयं पएसेहि। पुढे रेणुं व तणुंमि । इति वचनात् ।"
'अर्थात् शास्त्र का भी यही वचन है कि आत्म प्रदेश रूप हो गया हो वह बद्ध है और शरीर पर रज के समान चिपट जाना स्पृष्ट है ।' . .. समेऽपि प्राप्य कारत्वे चतुर्णामपि नन्वयम् ।।
को विशेषः स्पृष्टबद्ध स्पृष्टार्थ ग्रहणात्मकः ॥५२५॥ · यहां कोई यह शंका करते हैं कि- जब प्राप्त अर्थ को ग्रहण करने की योग्यता चारों इन्द्रियों में समान है तो फिर अमुक इन्द्रिय स्पृष्ट पदार्थ को ग्रहण करती है और अमुक बद्ध स्पृष्ट को ग्रहण करती है, ऐसा भेद किसलिए है ? (५२५)
अत्रोच्यते- स्पर्शगन्ध रस द्रव्यौघानां शब्दव्यपेक्षया । अल्पत्वात् बादरत्वाच्चाभावकत्वाच्च सत्वरम् ॥५२६॥ स्पर्शन घाणजिह्वानां मन्दशक्ति तयापि च । बद्ध स्पृष्टं वस्तुजातं गृह्णन्त्येतानि निश्चितम् ॥५२७॥ (युग्मं ।)
इसका उत्तर देते हैं कि- स्पर्शात्मक, गंधात्मक और रसात्मक पदार्थ शब्दात्मक पदार्थ से अल्प है, बादर है और जल्दी अभावक होता है तथा स्पर्शेन्द्रिय, घ्राणोन्द्रिय और रसेन्द्रिय- इन तीनों की कर्णेन्द्रिय से मंद शक्ति है इसलिए वह बद्ध स्पृष्ट पदार्थे को ही ग्रहण करती हैं । (५२६-५२७)