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अथवा तीन प्रकार की संज्ञा होती हैं, वह इस प्रकार- प्रथम दीर्घ कालिकी, दूसरी हेतुवाद और तीसरी दृष्टिवाद है । (४५८)
सुदीर्घमप्यतीतार्थ स्मरत्यथ विचिन्तयेत् । कथं तु नाम कर्त्तव्यमित्यागामिनमाद्यया ॥४५६॥
इसमें प्रथम दीर्घ कालिकी संज्ञा से मनुष्य को बहुत लम्बे समय पहले जो हुआ हो उसका स्मरण आता है और भविष्य में क्या करना है उस बात का चिन्तन आता है । (४५६)
तथा विचिन्त्येष्टानिष्टच्छायातपादि वस्तुषु । द्वितीयया स्व सौख्यार्थ स्यात्प्रवृत्ति निवृत्तिमान् ॥४६०॥
इस तरह चिन्तन करने के बाद दूसरी हेतुवाद संज्ञा से मनुष्य अपने सुख के लिए धूप, छाया आदि पदार्थों में से स्वयं को जो इष्ट-इष्ट हो उसमें प्रवृत्त होता है और जो अनिष्ट हो उससे निवृत्त रहता है । (४६०) . भवेत्सम्यग्दशामेव दृष्टि वादोपदेशिकी ।
एतामपेक्ष्य सर्वेऽपि मिथ्यादृशो ह्यसंज्ञिनः ॥४६१॥
तीसरी उपदेश देने वाली दृष्टिवाद संज्ञा सम्यक् दृष्टि जीवों को ही होती है। इस संज्ञा के कारण ही सर्व मिथ्यादृष्टि जीवों को असंज्ञी कहा है । (४६१)
सुरनारकगर्भोत्थ जीवानां दीर्घ कालिकी । संमूर्छिमान्तद्वयक्षादि जीवानां हेतु वादिकी ॥४६२॥ .
देवता, नारकी जीवों को और गर्भज जीवों को दीर्घ कालिकी नामक संज्ञा होती है । और दो इन्द्रिय से लेकर संमूर्छिम तक के जीवों को हेतुवाद नाम की संज्ञा होती है । (४६२).
छद्मस्थ सम्यग् दृष्टीनां श्रुतज्ञानात्मिकान्तिमा । मति व्यापार निर्मुक्ताः संज्ञातीता जिनाः समे ॥४६३॥
इति संज्ञाः ॥२१॥ छद्मस्थ सम्यक् दृष्टि जीवों को श्रुतज्ञान रूप तीसरी दृष्टिवाद संज्ञा होती है । मति ज्ञान के व्यापार से आगे बढ़ने वाले सर्व श्री जिनेश्वर भगवन्त तो संज्ञातीत होते है । (४६३) . इस तरह इक्कीसवां द्वार संज्ञा विषयक सम्पूर्ण हुआ ।