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(१५३) में जाता है, मन इन्द्रिय के साथ में जाता है और इन्द्रिय अपने अर्थ-विषय के साथ में जाती है- इस तरह शीघ्र क्रम है और यही क्रम योग्य है, क्योंकि मन को कुछ भी अगम्य नहीं है। जहां मन जाता है वहां आत्मा भी जाती है।' किंच - एकाक्षादि व्यवहारो भवेत् द्रव्योन्द्रियैः किल । .
___ अन्यथा बकुलः पंचाक्षः स्यात् पंचोपयोगतः ॥४८७॥ तथा ऐकेन्द्रिय आदि व्यवहार भी द्रव्येन्द्रियों के द्वारा ही होता है । अन्यथा बकुल वृक्ष भी पांच उपयोगों के कारण पंचेन्द्रिय हो जाता है । (४८७) यदुक्तम् – पंचिन्दिओ उवउलो नरोत्व सव्वोवल द्विभावाओ।
तहवि न भणइ पंचिन्दि ओत्ति दव्विन्दिया भावा ॥४८८॥ कहा है कि- बकुल वृक्ष भी मनुष्य के समान सर्व उपयोग को लेकर पंचेन्द्रिय के समान वर्तन करता है, परन्तु उसे द्रव्येन्द्रिय का अभाव होता है, इसलिए वह पंचेन्द्रिय नहीं कहलाता है । (४८८)
रणनुपुर शृंगार चारू लोलेक्षणा मुखात् । निर्यत्सुगन्धिमदि शगंडु षादेष पुष्प्यति ॥४८६॥
. ततः पंचाप्युपयोगा भाष्या इति ॥ यह बंकुल. वृक्ष रणकार करते नूपुर वाली चपल नयना सुन्दरी के मुख सुगंधी मदिरा के कुल्ले से पुष्पित होता है। (४८६)
इसी तरह से पांचों उपयोग जान लेना ॥
अंगुला संख्येय भाग बाहल्यानि जिनेश्वराः । ऊचुः पंचापीन्द्रियाणि बाहल्यं स्थूलता किल ॥४६०॥ नन्वंगुला संख्य भाग बहले स्पर्शनेन्द्रिये । खड्गादि घाते देहान्तर्वेदनानुभवः कथम् ॥४६१॥
पांचों इन्द्रिया एक अंगुल के असंख्यातवें भाग समान बहुल अर्थात् स्थूल हैं । इस तरह श्री जिनेश्वर भगवन्त के वचन हैं । यहां कोई शंका करता है कियदि एक अंगुल के असंख्यातवें भाग समान में इन्द्रिय की स्थूलता होती है तो स्पर्शेन्द्रिय पर तलवार या किसी वस्तु का प्रहार होता है, उस समय शरीर में वेदना का अनुभव कहां से होता है ? (४६०-४६१)