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उपयोगेन्द्रियं चैकमेकधा नाधिकं भवेत् । एकधा हपयोगः स्यादेक एव यदंगिनाम् ॥४८२॥
उपयोग इन्द्रिय एक समय में एक ही होती है, अधिक नहीं होती क्योंकि जीवों को एक समय में एक ही उपयोग होता है । (४८२) तथाहि- इन्द्रियेणेह येनैव मनः संयज्यतेऽगिनः ।
तदेवैकं स्व विषय ग्रहणाय प्रवर्त्तते ॥४८३॥ तथा प्राणी का मन जिस इन्द्रिय द्वारा जुड़ता है वही एक इन्द्रिय अपने विषय को ग्रहण करने में प्रवृत्तिमान होती है । (४८३) ..
सशब्दां सुरभिं मृवीं खादतो दीर्घ शष्कुलीम् । पंचानामुपयोगानां यौग पद्यस्य यो भ्रमः ॥४८४॥ स चेन्द्रियेषु सर्वेषु मनसः शीघयोगतः । . संम्भवेद्युगपत्पत्र शतवेधाभिमानवत् ॥४८५॥ (युग्मं।)
शब्दायमान, सुगंधिमय, मृदु और दीर्घ चोलाफली या ग्वार फली खाते समय एक साथ पांचों इन्द्रिय अपने-अपने विषय को ग्रहण करती हैं - इस तरह लगता है, परन्तु वह सर्व इन्द्रियों के विषय में मन का शीघ्र योग होने से जैसे मनुष्य एक साथ सभी पत्रों को भेदन करने का अभिमान करता है उसके समान एक भ्रम ही है । (४८४-४८५)
अन्यथा तूपयोगौ द्वौ युगपन्नाहतोऽपि चेत'। छद्म स्थानां पंच तहिं सम्भवेयुः कथं सह ॥४८६॥
एक साथ में दो उपयोग श्री अरिहंत परमात्मा को भी नहीं होता है तो फिर छद्मस्थ मनुष्य को एक ही समय में पांच उपयोग किस तरह हो सकते हैं ? (४८६) तदुक्तं प्रथमांग वृत्तौ
आत्मा सहै ति मनसा मन इन्द्रियेण । .. स्वार्थेन चेन्द्रियमिति कमएष शीघः ।, योग्योऽयमेव मनसः किमगम्यमस्ति ।
यस्मिन्मनो व्रजति तत्रगतोऽयमात्मा ॥१॥ प्रथम अंग श्री आचारांग सूत्र की वृत्ति में कहा है कि- 'आत्मा' मन के साथ