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- "प्रवचन सारोद्धार वृत्तौ तु एवं लिखितम् । तथा मति ज्ञानावरण कर्मक्षयो-पशमात् शब्दार्थ गोचरा सामान्यावबोध क्रिया ओघ संज्ञा। तद्विशेषावबोध क्रिया लोक संज्ञा।एवंचेदमापतितम् दर्शनोपयोगःओघ संज्ञा ज्ञानोपयोगः लोक संज्ञा। एषः स्थानांग टीकाभिप्रायः ॥"
अर्थात्- प्रवचन सारोद्धार ग्रंथ में इस तरह लिखा है कि मति ज्ञान का आवरण करने वाले कर्मों के क्षयोपशम से शब्द और अर्थ का गोचर सामान्य अवबोध क्रिया है, उसका नाम ओघ संज्ञा है । इससे सविशेष अवबोध हो उस क्रिया को लोक संज्ञा कहते हैं । इसके आधार पर यह सार निकलता है कि दर्शन का उपयोग वह ओघ संज्ञा है और ज्ञान का उपयोग वह लोक संज्ञा है । ऐसा ही स्थानांग सूत्र पर टीका का अभिप्राय है। ___ आचारांग टीकायां पुनरभिहितं ओघ संज्ञा तु अव्यक्तोपयोग रूपा . वल्लीवितानारोहणादि संज्ञा । लोक संज्ञा स्वच्छन्द घटित विकल्प रूपा लोकोप-चरित्रता । यथा न सन्ति अनंपत्यस्य लोकाः श्वानो यक्षाः विप्रः देवाः काकाः पितामहाः बर्हिणां पक्षवातेन गर्भ इत्यादिका । इति ॥आचारांगे तुः- आचारांग सूत्र की टीका में इस तरह कहा है कि- लताओं की आरोहणादि संज्ञा के समान उसका उपयोग अव्यक्त-अप्रकट होता है । ऐसी जात की जो संज्ञा है वह ओघ संज्ञा है और लोगों ने अपने अपने छंदं अनुसार विकल्प बनाये हों वह लोक संज्ञा कहलाती है जैसे कि अपुत्रवान की सद्गति नहीं होती, श्वान (कुत्ता) यक्ष रूप है, विप्र सर्व देव समान है, काक (कौए) सर्व पितृ सद्दश है, मयूर में पंख की वायु से गर्भ रहता है, यह सब लोक संज्ञा के दृष्टान्त हैं । आचारांग सूत्र में और भी कहा है :
मोह धर्म सुख दुःख जुगुप्सा शोक नामभिः । दशता षड्भिरेताभिः सह षोडश वर्णिताः ॥४५७॥
पूर्व में हमने जो दस संज्ञा कही हैं, वे तथा अन्य और छह मिलाने से सोलह संज्ञा मानी गई हैं। अन्य जो संज्ञा हैं वह इस प्रकार से- १- मोह, २- धर्म, ३- सुख, ४- दुःख, ५- शोक और ६- जुगुप्सा । (४५७)
अथवा त्रिविधाः संज्ञाः प्रथमा दीर्घ कालिकी । द्वितीया हेतुपादाख्या, दृष्टिवादामिधा परा ॥४५८॥