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और एकेन्द्रिय जीवों में भी यह होता है, इस तरह वृक्ष के दृष्टान्त देकर यह सिद्ध किया है । वह इस प्रकार से
रूक्खाण जलाहारो संको अणिआ भयेण संकुइयं। निअतन्तु एहिं वेढइ वल्ली रूख्खे परिगहेइ ॥४४८॥ इत्थि परिरंभणेणं कुरूबगतरूणो फलंति मेहुणे। तह कोनदस्स कंदे हुंकारे मुअइ कोहेणं ॥४४६।।.. माणे झरइ रूअंती छायइ वल्ली फलाई मायाए । लोभे विल्ल पलासा खिवंति मूले निहाणु वरि ॥४५०॥ . . रयणीए संकोओ कमलाणं होड़ लोगसन्नाए । ।
ओहे चइत्तु मग्गं चडंति रूख्खेसु वल्लीओ ॥४५१॥
१- वृक्षों को जलाहार होता है, २- वृक्षों को भय भी होता है क्योंकि उनका भी संकोच होता है, ये भय बिना नहीं होते । ३- लताए तंतुओं द्वारा वृक्षों को लपेट कर मुड़ती हैं। यह परिग्रह संज्ञा नहीं तो और क्या है ? ४- स्त्री आलिंगन देती है तब कुरबक वृक्ष फूलता है अर्थात् वृक्ष में मैथुन संज्ञा भी सिद्ध होती है।५- कोकनंद अर्थात् रक्त जल कमल हुंकार शब्द करता है, यह इसमें क्रोध संज्ञा है- यह सिद्ध होता है । ६- रूदंती नाम की लता झरती है, यह मान का सूचक है ।७- लताएं अपने फलों को ढक कर रखती हैं, यह उनकी माया ही है । ८- पृथ्वी में किसी स्थान पर खजाना होता है, इसे ऊपर से बिल पलाश वृक्ष अपनी जड़-मूलों से छिपा देता है यह इसमें लोभ प्रकृति है ऐसा दिखाई देता है । ६- रात्रि हो जाती है तब सारे कमल पुष्प संकोच युक्त हो जाते हैं इसका कारण लोक संज्ञा का सद्भाव है और १०- लता सर्व मार्ग शोधते वृक्ष पर चढ जाती है। इस तरह उसमें ओघ संज्ञा दिखती है । (४४८ से ४५१) अन्यैरपि वृक्षाणां मैथुन संज्ञाभिधीयते। तथोक्तं श्रृंगार तिलके ।
सुभग कुरूबकस्त्वं नो किमालिंगनोत्कः । किमु मुखयदिरेच्छुः केसरो नो हृदिस्थः ॥ त्वयि नियतमशोके युज्यते पादघातः । .
प्रियमिति परिहासात्पेशलं काचि इचे ॥४५२॥ तथा पारदोऽपि स्फार शृंगारया स्त्रियावलोकितः कूपादुल्ल लतीति लोके श्रुयते । इति ॥