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(१४२) सब से कम कषाय रहित प्राणी हैं, इससे अनन्त गुना मानी हैं, इससे बहुत अधिक क्रोधी हैं, इससे विशेष अधिक माया कपटी हैं और इससे भी अधिक लोभी होते हैं । (४३७)
एकेन्द्रियाणां चत्वारोऽप्यनाभोगाद भवन्त्यमी । अदर्शित बहिर्देह विकारा अस्फूटात्मकाः ॥४३८॥
एकेन्द्रिय जीवों को ये चार कषाय अनाभोगे होते हैं और इससे बाहर से इनके शरीर का विकार नहीं दिखता, अप्रगट रूप में रहता है । (४३८)
सर्वदा सहचारित्वात्कषायाऽष्यभिचारिणः ।। नो कषाया नव प्रोक्ताः स्तवनीय क्रमाम्बुजैः ॥४३६॥ . :
कषायों के साथ सर्वदा अव्यभिचारी रूप में सहयोगी अनुकूल सम्बन्ध से. रहने वाले नौ
तदुक्तं प्रज्ञापना वृत्तौः - . कषाय सहवर्तित्वात्कषाय प्रेरणादपि । हास्यादि नव कस्योक्ता नो कषाय कषायता ॥४४०॥ हासो रत्यरती भीतिर्जुगुप्सा शोक एव च । पुंस्त्री क्लीवाभिधा वेदाः नो कषाया अमीमता ॥४४१॥
इति कषाया ॥२०॥ इस सम्बन्ध में प्रज्ञापना वृत्ति में कहा है कि- कषायों के साथ रहने वाले तथा उसकी प्रेरणा के कारण हास्य आदि नौ कौ नौ कषाय ऐसा नाम दिया है वह इस प्रकार १- हास्य, २- रति, ३- अरति, ४- भय, ५- जुगुप्सा, ६- शोक, ७- पुंवेद, ८- स्त्रीवेद और ६- नपुंसक वेद- ये नौ प्रकार के नौ कषाय होते हैं । (४४०-४४१)
इस तरह बीसवां द्वार कषाय का स्वरूप कहा। संज्ञां स्यात् ज्ञान रूपैका द्वितीयानुभवात्मिका । तत्राद्या पंचधा ज्ञानमन्या च स्यात् स्वरूपतः ॥४४२॥ असात् वेदनीयादि कर्मोदय समुद्भवा । आहारादि परीणाम भेदात्सा च चतुर्विधा ॥४४३॥ युग्मं ।
अब इक्कीसवें द्वार संज्ञा के विषय में कहते हैं- १- ज्ञान रूप और २- अनुभव रूप दो प्रकार की संज्ञा है । प्रथम ज्ञान रूप संज्ञा के पांच प्रकार हैं और दूसरी