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अनुभव रूप संज्ञा असात वेदनीय आदि कर्मों के उदय से उत्पन्न होती है और आहार आदि भिन्न-भिन्न रूप परिणामस्वरूप होने के कारण इसके चार भेद होते हैं । (४४२-४४३)
तथाहुः। चत्तारि सणाओ पणत्ते । आहार सणा, भय सणा, मेहुणा, परिग्गह सणा । इति स्थानांगे ।
तथा स्थानांग - ठाणांगसूत्र में कहा है कि १- आहार संज्ञा, २ - भय संज्ञा, ३- मैथुन संज्ञा और ४- परिग्रह संज्ञा - इस तरह चार संज्ञा प्राणीमात्र की होती हैं। आहारे योभिलाषः स्याज्जन्तो क्षुद्वेद नीयतः ।
आहार संज्ञा सा ज्ञेया शेषाः स्युर्मोहनीयजाः ॥ ४४४ ॥
१- क्षुधा - भूख लगने से जीव को आहार की इच्छा होती है, वह आहार संज्ञा कहलाती है। शेष संज्ञाएं मोहनीय कर्म उत्पन्न होने से होती हैं । (४४४)
भय संज्ञा भयत्रासरूपं यदनुभयते । मैथुनेच्छात्मिका वेदोदयजा मैथुनाभिधा ||४४५॥
२ - त्रास-डर रूप भय का अनुभव होना भय संज्ञा है और ३- वेदोदय के कारण प्राणीमात्र को स्वाभाविक रूप में हवस के कारण मैथुन की इच्छा जागृत होना मैथुन संज्ञा है । (४४५)
स्यात्परिग्रह संज्ञा च लोभोदय समुद्भवा । अनाभोगाव्यक्त रूपा एताश्चैकेन्द्रियांगिनाम् ॥४४६॥
४- जो लोभ के उदय से उत्पन्न हो वह परिग्रह संज्ञा है । यह संज्ञा एकेन्द्रिय प्राणियों में उपयोग रहित रूप में और अप्रकट रूप में होती है । (४४६) भगवती सप्तम शतकाष्टमोद्देशकेतु:
आहार भय परिग्गह मेहुण तह कोह माण माया च ।
लोभो लोगो ओहो सन्न दस सव्व जीवाणं ॥ ४४७॥ इति । एताश्च वृक्षोपलक्षणेन सर्वैकेन्द्रियाणां साक्षादेवं दर्शिताः तद्यथा
श्री भगवती सूत्र के अन्दर सातवें शतक आठवें उद्देश में कहा है- सर्व जीवों को १ - आहार, २ - भय, ३ - परिग्रह, ४- मैथुन, ५- क्रोध, ६- मान, ७- माया, ओघ - इस तरह दस संज्ञा होती है। (४४७)
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लोभ - लोक और १०