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अन्य स्थान पर भी कहा है कि- शब्द आदि विषयों को लेकर जो बारम्बार संज्वलित-उद्दीप्त होते हैं ऐसे चारों प्रकार के कषायों को संज्वलन कहते हैं। (४२१)
स्युः प्रत्येकं चतुर्भेदाः संज्वलनादयः । एवं षोडशद्यै कै कश्चतुः षष्टि विधा इति ॥४२२॥
इन चार भेद के प्रत्येक के और चार-चार उपभेद होते हैं अर्थात् चार के सोलह उपभेद होते हैं और चारों कषायों के कुल मिलाकर चौंसठ भेद होते है। (४२२)
यथा कदाचिच्छिष्टोऽपि क्रोधदेर्याति दुष्टताम् ।
एवं संज्वलनोऽप्येति क्वाप्यनन्तानुबन्धिताम् ॥४२३॥
जिस प्रकार कोई सज्जन पुरुष भी कभी क्रोध के कारण दुष्ट, उपद्रवी या पापिष्ठ हो जाता है- इसी तरह संज्वलन कषाय भी किसी समय में अनन्तानुबन्धी हो जाता है। (४२३) . "एवं सर्वेष्वपि भाव्यं" अर्थात् 'इसी तरह सर्व कषायों के विषय में समझना चाहिए।'
तत एवोपपये तानन्तानुबन्धिभाविनी ।। कृष्णादे दुर्गतिर्नूनं क्षीणानन्तानुबन्धिनः ॥४२४॥
और इस तरह होने से ही और अनन्तानुबन्ध क्षीण हो जाने से उसके कृष्ण लेश्या आदि की अनन्तानुबन्ध से होने वाली दुर्गति घट जाती है । (४२४)
एवं च -वर्षावस्थायिमानस्य श्री बाहुबलिनो मुनेः । .
. कैवल्य हेतुश्चारित्रं ज्ञेयं संचलनोचितम् ॥४२५॥ इस प्रकार श्री बाहुबलि मुनि को एक वर्ष तक मान रहा था, फिर भी आखिर में उन्हें केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ था। यह भी संज्वलन की ऐसी योग्यता का कारण समझना चाहिए । (४२५.). .. कर्मग्रन्थ कारैश्च सदृष्टान्ता एवमेते जगदिरे
जलरेणु पुढवीपत्वय राई सरिसो चउव्विहो कोहो । तिणि सलया कट्टठियसेलत्थं भोवामो माणो ॥४२६॥ माया वलेहिगोमुत्तिमिंढ सिंगघणवंसि मूलसमा । लोहो हलिद्द खंजण कद्दमकिमिराग सारित्थो ॥४२७॥ कर्म ग्रन्थ के कर्ता ने इन कषायों को उदाहरण देकर समझाया है । वह इस