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(१३८)
अनन्तान्यनुबध्नन्ति यतो जन्मनि भूत्रये ।
तेनान्तानुबन्ध्याख्या क्रोधद्येषु नियोजिता ॥४१६। . एषां संयोजना इति द्वितीयमपिनाम ॥
संयोजयन्ति यनरमनन्तसंख्यैर्भवैः कषायास्ते । संयोजनतानन्तानु बन्धिता वाप्यतस्तेषाम् ॥४१७॥
१- प्रज्ञापना- पन्नवणा सूत्र की वृत्ति में कहा है कि- क्रोधादि चार कषाय प्राणी को अनन्त जन्म एक के बाद एक बंधन करवाते हैं, इसलिए अनन्त- अनुबन्धि = अनन्तानुबंधि नाम कहलाता है। इस अनन्तानुबन्धि के स्थान पर संयोजन दूसरा नाम भी है। क्योंकि यह मनुष्य को अनन्त जन्मों के साथ में संयोजक होता है, इसलिए इसका नाम संयोजन है अथवा अनंन्तानुबन्धिता भी है। (४१६-४१७)
नाल्पमप्युल्लसेदेषां प्रत्याख्यानमिहो दयात् । . अप्रत्याख्यान् संज्ञातो द्वितीयेषु नियोजिता ॥४१८॥..
२- दूसरे प्रकार से अप्रत्याख्यानी नाम इस कारण से कहलाया कि इसके उदय से इस जगत में अल्प की प्रत्याख्यान से रुकता नहीं है । (४१८)
सर्व सावध विरतिः प्रत्याख्यानमिहोदितम् । तदावरणतः संज्ञा सा तृतीयेषु योजिता ॥४१६॥
३- सर्व प्रकार के अनिष्ट-पापमय कार्यों से रूक जाना उसका नाम प्रत्याख्यान कहलाता है,वह प्रत्याख्यान करवाता है । यह तृतीय प्रकार का प्रत्याख्यानी है । (४१६) .
सम ज्वलयन्ति यतिं यत्संविग्नं सर्वपाप विरतमपि । तस्मात् संज्वलना इत्य प्रशमकरा निरुच्यन्ते ॥४२०॥
कोई कषाय सर्वपाप कार्यों से विरक्त संविग्न मुनिराज को भी सम अर्थात् अच्छी तरह से जलाता है - या उत्तेजित करता है । वह कषाय चौथा संज्वलन कहलाता है । (४२०)
अन्यत्रापि उक्तम् शब्दादीन् विषयान्प्राप्य संज्वलन्ति यतोमुहुः । ततः संज्वलना ह्यानं चतुर्थानामिहोच्यते ॥४२१॥